रवीन्द्र व्यास


दिवाली के दूसरे दिन जहां इनके ये दल हर गली और नुक्कड़ पर दिख जाते थे, अब सिमित होते जा रहे हें ।दिवारी गीत मूलतः चरागाही संस्कृति के गीत ह़े , यही कारण है की इन गीतों में जीवन का यथार्थ मिलता है । फिर चाहे वह सामाजिकता हो,या धार्मिकता , अथवा श्रृंगार या जीवन का दर्शन । ये वे गीत हें जिनमे सिर्फ जीवन की वास्तविकता के रंग हें , बनावटी दुनिया से दूर , सिर्फ चारागाही संस्कृति का प्रतिबिम्ब । अधिकाँश गीत निति और दर्शन के हें । ओज से परिपूर्ण इन गीतों में विविध रसों की अभिव्यक्ति मिलती है ।
काल खंड :
दिवारी गीत दिवाली के दूसरे दिन उस समय गाये जाते हें जब मोनिया मौन व्रत रख कर गाँव- गाँव में घूमते हें । दीपावली के पूजन के बाद मध्य रात्रि में मोनिया -व्रत शुरू हो जाता है । गाँव के अहीर – गडरिया और पशु पालक तालाब नदी में नहा कर , सज-धज कर मौन व्रत लेते हें । इसी कारण इन्हे मोनिया भी कहा जाता है । इनके साथ चलते हें गायक और वादक , वादक अपने साथ ढोल ,नगड़िया और मंजीरा रखते हें ,तो कहीं -कही म्रदंग और रमतूलों का भी उपयोग होता है । गायक जब छंद गीत का स्वर छेड़ता है तो वादक उसी अनुसार वाद्य यंत्र का उपयोग करता है । हालांकि मोनिया कोंड़ियों से गुथे लाल,पीले रंग के जांघिये और लाल पीले रंग की कुर्ती या सलूका अथवा बनियान पहनते हें । जिस पर झूमर लगी होती है , पाँव में भी घुंघरू ,हाथो में मोर पंख अथवा चाचर के दो डंडे का शस्त्र लेकर जब वे चलते हें तो एक अलग ही अहसास होता है । मोनियों के इस निराले रूप और उनके गायन और नृत्य को देखने खजुराहों में विदेशी भी ठहर जाते हें ।
इतिहास
दिवारी गीतों का चलन कब शुरू हुआ इसको लेकर अलग -अलग मान्यताएं हें । कुछ कहते हें की दिवारी गीतों का चलन 10वी .सदी में हुआ । तो कुछ का मानना है की द्धापर में कालिया के मर्दन के बाद ग्वालोंने श्री कृष्ण का असली रूप देख लिया था। श्री कृष्ण ने उन्हें गीता का ज्ञान भी दिया था। गो पालकों को दिया गया ज्ञान वास्तव में गाय की सेवा के साथ शरीर को मजबूत करना था। श्री कृष्ण ने उन्हें समझाया कि इस लोक व उस लोक को तारने वाली गाय माता की सेवा से न केवल दुख दूर होते हैं बल्कि आर्थिक सम्बृद्धि का आधार भी यही है।इसमें गाय को 13 वर्ष तक मौन चराने की परंपरा है। आज भी यादव (अहीर) और पाल (गड़रिया)जाति के लोग गाय को न सिर्फ मौन चराने का काम करते हैं\| गांव के राम लाल यादव का कहना है कि भगवान कृष्ण गोकुल में गोपिकाओं के साथ दीवारीनृत्य कर रहे थे, गोकुलवासी भगवान इंद्र की पूजा करना भूल गए तो नाराज होकर इंद्र नेवहां जबर्दस्त बारिश की, जिससे वहां बाढ़ की स्थिति बन गई। भगवान कृष्ण ने अपनी अंगुलीपर गोवर्धन पर्वत उठाकर गोकुल की रक्षा की, तभी से गोवर्धन पूजा और दिवारी नृत्य की परम्परा चली आ रहीहै।पर अब यह परम्परा अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है । छतरपुर के रामजी यादव कहते हें की अब गाँव ही सिमट रहे हें गो पालन अब घटता जा रहा है , इसे में अब गाय चराने वाले भी सिमित होते जा रहे हें । जिसका परिणाम है की अब पहले की तरह ये दल नहीं दिखते हें । हालांकि बुंदेलखंड के लोग इस परम्परा को जीवित बनाए रखने का प्रयास कर रहें हें । इसके आयोजन के कई तरह के अब समारोह भी होने लगे हैं , इसी तरह का एक आयोजन बुंदेलखंड के चरखारी में होता है , इस नृत्य समारोह के माध्यम से
क्या है मौनिया नृत्य
कार्तिक मास की अमावश्या के दूसरे दिन परमा से 15 दिनों तक यह मोनिया गाँव गाँव और धार्मिक स्थलों तक पहुँचते हैं |, पूर्णिमा को इसका समापन होता है । लोक संस्कृति के जानकार डॉ. केएलपटेल बताते हैं मौन साधना के पीछे सबसे मुख्य कारण पशुओं को होने वाली पीड़ा को समझनाहै। वे बताते हैं कि जिस तरह किसान खेती के दौरान बैलों के साथ व्यवहार करता है। उसी प्रकार प्रतिपदा के दिन मौनिया भी मौन रहकर हाव-भाव करते हैं। वे प्यास लगने पर पानी जानवरों की तरह ही पीते हैं। पूरे दिन कुछ भी भोजन नहीं करते हैं। वे कम से कम 7 से 12 गांवकी परिक्रमा करते हैं।
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