महावीर अग्रवाल
मन्दसौर ५ नवंबर ;अभी तक; श्री चैतन्य आश्रम मेनपुरिया में 5 नवम्बर को ब्रह्मलीन स्वामी श्री भागवतानंदजी महाराज की 7वीं निर्वाण (पुण्य) तिथि संतों के सानिध्य में मनाई गई। सन्त सर्वश्री आनन्दस्वरूपानंद सरस्वती महाराज कैलाश आश्रम रिषिकेष, स्वामी चैतन्यानंदगिरीजी महाराज औंकारेश्वर, स्वामी भक्तानंदजी महाराज प्रतापगढ़, स्वामी राजेश्वरानंदजी महाराज औंकारेश्वर, स्वामी मोहनानंदजी महाराज, चैतन्य आश्रम मेनपुरिया के सानिध्य में मनाई गई।
प्रारंभ में चैतन्य आश्रम स्थित श्री भागवतानंद मंदिर में स्वामी भागवतानंदजी महाराज के श्रीविग्रह का अभिषेक-पूजन पं. देवप्रसाद उपाध्याय तथा चैतन्य व्यास द्वारा सम्पन्न कराया गया।
चैतन्य आश्रम लोकन्यास अध्यक्ष प्रहलाद काबरा, पूर्व अध्यक्ष कारूलाल सोनी, सचिव राधेश्याम सिखवाल, कोषाध्यक्ष जगदीशचन्द्र सेठिया, न्यासी ओमनारायण शर्मा, भेरूलाल सुथार, रूपनारायण जोशी, बंशीलाल टांक, रामचन्द्र कुमावत ने संतों का शाल-श्रीफल भेंटकर आशीर्वाद लिया।
उपस्थित रहे- विवेक शर्मा, एडवोकेट अजय सिखवाल, पन्नालाल पटेल, शिवनारायण शर्मा, पुजारी विष्णुगिरी गोस्वामी, गोविन्दराम कुमावत, हरिनारायण कुमावत आदि।
संतों के हुए प्रवचन-
स्वामी भक्तानंदजी महाराज- स्वामी भागवतानंदजी परम सरल एवं विनोदी स्वभाव के संत थे। अप्रसन्नता-खिन्नता कभी उनके चेहरे पर नहीं दिखाई दी। चाहे कोई कितना भी परेशान तनावग्रस्त क्यों न हो जैसे ही स्वामीजी के पास आता था। स्वामीजी की दया भरी दृष्टी में ऐसा जादू था कि उनकी दृष्टि पड़ते ही उसका अशान्त परेशान मन एक दम शान्त और तनाव रहित हो जाता था। विश्व प्रसिद्ध अष्टमूर्ति भगवान पशुपतिनाथ के प्रतिष्ठाता स्वामी प्रत्यक्षानंदजी के ब्रह्मलीन होने के पश्चात् स्वामी भागवतानंदजी ने उनके प्रत्यक्षानंदजी के धर्म जागरण अभियान को जहां-जहां स्वामी प्रत्यक्षानंदजी भारत में जहां-जहां आश्रमों के माध्यम से भागवत धर्म का प्रचार प्रसार किया उन सभी क्षेत्रों में जाकर धर्म की ज्योत को अखण्ड प्रज्जवलित रखा। चैतन्य आश्रम की वर्तमान में जो भव्यता और रमणयिता है वह स्वामी भागवतानंदजी की कठिन साधना पुरूषार्थ का ही फल है। स्वामी भागवतानंदजी की प्रबल इच्छा थी कि एक तो पशुपतिनाथ जाने वाले चन्द्रपुरा चौराहा महू-नीमच मुख्य सड़क पर भगवान पशुपतिनाथ की तरफ मुखाकृति नन्दी की विशाल प्रतिमा स्थापित होना चाहिए और चैतन्य आश्रम मेनपुरिया मार्ग का नामकरण प्रत्यक्षानंद मार्ग होना चाहिए। दोनों ही प्रस्ताव भगवान पशुपतिनाथ की प्रसिद्धी और स्वामी प्रत्यक्षानंदजी की स्मृति को अमिट बनाये रखने के लिये सहायक सिद्ध होंगे जिसके लिये नगरपालिका, भगवान पशुपतिनाथ प्रबंध समिति अथवा जिला प्रशासन को प्रयास करना चाहिए।
स्वामी चैतन्यानंदजी गिरीजी महाराज- वैदिक सनातन धर्म में दुर्जन को मारने का नहीं बल्कि उसे दुर्जन से सज्जन बनाने की परम्परा रही है। दुर्जन दुर्जनता छोड़कर सज्जन हो जाये, सज्जनता से शांति और शांति से फिर समस्त लोकिक वासनाओं कामनाओं की आसक्ति छोड़कर जिते जी शरीर में रहते हुए अपने आत्म स्वरूप का चिन्तन करते हुए मुक्त हो जाना यही संतों का उद्देश्य होता है जिसका दायित्व अच्छी प्रकार से स्वामी भागवतानंदजी ने निभाया था। चन्दन की सुगंध जिस प्रकार पास के वृक्षां को भी सुगंध से भर देती है, उसी प्रकार संत जहां विराजते है उनके रहते हुए तो वहां का वातावरण दिव्य चेतना से अलोकित रहता है परन्तु उनके ब्रह्मलीन होने के बाद भी उस स्थान, आश्रम का अणु-अणु वहां आने वाले प्रत्येक जिज्ञासु की जिज्ञासा तथा दुःखी अशान्त के मन को शांति प्रदान करता है।
स्वामी आनन्दस्वरूपानंद सरस्वतीजी महाराज- चैतन्य आश्रम मेनपुरिया श्रीमद् जगद्गुरू शंकराचार्य सन्त परम्परा का आश्रम है और यहां पर जो भी सन्त विराजते है वे सभी अपने आत्म स्वरूप कि वास्तव में कौन है का बोध करने का कार्य करते है, क्योंकि जो बाहर दिखाई देता है वह शरीर और उसमें स्थित मनबुद्धि-इन्द्रियाँ सभी जड़ है परन्तु इन्हें चेतनता प्रदान करने वाला शरीर में जो तत्व है वह आत्मा है और वहीं हमारा वास्तविक स्वरूप है जो मृत्यु से पहले भी था और जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त अपरिवर्तनशील रहता हैं, शरीर का नाश होने पर भी उसका कभी नाश नहीं होता और इसी ज्ञान को जन-जन तक फैलाने स्वामी भागवतानंदजी ने गृहस्थाश्रम का त्याग कर घरबार छोड़कर सन्यास धर्म में दीक्षित होकर धर्म प्रचार किया ।
स्वागत उद्बोधन कारूलाल सोनी का हुआ। प्रहलाद काबरा, रूपनारायण जोशी, ओमनारायण शर्मा ने भी स्वामी भागवतानंदजी के जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला।
संचालन तथा ट्रस्ट की ओर से आभार आश्रम के युवाचार्य स्वामी मणी महेश चैतन्यजी महाराज ने माना। उल्लेखनीय है कि कोरोना के मद्देनजर शासन की गाइड लाईन का पालन करते हुए कार्यक्रम सीमित श्रद्धालुओं की उपस्थिति में हुआ।
उक्त जानकारी मीडिया प्रभारी बंशीलाल टाक द्वारा दी गई।
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