महावीएर अग्रवाल
मन्दसौर ११ सेपेतेम्बेर ;अभी तक; भक्ति का मतलब है-ईश्वर के साथ अन्तर्मन से जुड़ जाना, जुड़ने की प्रवृत्ति को ही भक्ति कहते है, व्यक्ति किसी न किसी के साथ जुड़ा रहता है, पर दुनियादारी के रिश्तों के साथ जुड़ना भक्ति नहीं यह तो आसक्ति होती है, आसक्त व्यक्ति भक्त नहीं हो सकता, दुनियादारी से अनासक्त भक्त ही ईश्वर के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, जब भक्ति की गहराई में उतरता है, तब उसे शक्ति की प्राप्ति होती है। भक्ति धर्म की उत्सवपूर्ण परिभाषा है, धर्म का व्यावहारिक पक्ष भक्ति में उजागर होता है, इसी से सच्चा भक्त सदा संतोषी, दूसरों की भलाई चाहने वाला, अभिमान न करने वाला, जीवन में समता भाव से रहने वाला तथा पवित्र स्वभाव वाला होता है, यही भक्त का सच्चा व्यक्तित्व होता है। भक्त के लिए कोई मेरा तेरा नहीं होता, वह सुख-दुःख, हानि-लाभ, हर्ष-शोक सबको अपने कर्मों का फल मानता है वह न अनुकूलता का रागी होता है न प्रतिकूलता में द्वेष करता है। राग-द्वेष से परे रहकर समभाव और सद्भाव पूर्वक अपना जीवन व्यवहार चलाता है।
ये विचार शास्त्री कॉलोनी स्थित नवकार भवन में विराजित प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री विजयराजजी म.सा. ने 11 सितम्बर, शुक्रवार को प्रसारित मंगल सन्देश में कहे। आपने कहा-एक सच्चा भक्त ईश्वर से कुछ मांगता नहीं है वह तो कहता है-प्रभु! आप मुझे ऐसी दृष्टि दें कि मैं इच्छा रहित हो जाऊँ, मेरे भीतर बैठा भिखारी मन मांगने की आदत न रखें, मांगने की आदत बहुत बुरी होती है, मैं निष्काम बनूं, बस ऐसी शक्ति देना। मांगना और मरना समान है, संसारी लोग ईश्वर से वो मांगते हैं जो नहीं मांगना चाहिए। मांगे कभी किसी की पूरी नहीं होती वे अधूरी और अपूर्ण ही रहती है। इच्छा रहित भक्ति निष्काम होती है। ऐसी भक्ति स्वयं को तिरा देती है। अन्यों को भी सही रास्ता दिखाती है। सच्चे भक्त बनों नहीं तो अच्छे भक्त तो बनना चाहिए, कच्चे भक्त कोई काम के नहीं होते, उनकी आस्था डोलती रहती है। वे गंगा जाते है तो गंगादास और जमुना जाते हैं तो जमनादास बन जाते है। आस्था में स्थिरता और दृढ़ता ही अच्छे व सच्चे भक्तों की पहचान होती है।
आचार्य श्री ने कहा कुछ लोग भगवान को तो मानते है मगर भगवान की नहीं मानते, भगवान को मानने वाले पुजारी भक्त और भगवान की मानने वाले सदाचारी भक्त होते है। सदाचारी भक्त अपने जीवन में सच्चरित्री होते हैं वे अहिंसा में आस्था, सत्य में सत्व, आचार्य की आराधना, ब्रह्मचर्य की साधना और अपरिग्रह की भावना रखते हुए जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करते हैं। मन-वाणी और कर्म की एकाकारता ही भक्ति को प्रगाढ़ता देती है। भक्त समय और स्थान से अनुबंधित न रहकर सर्वत्र और सर्वदा भक्ति में तन्मय रहता हैं। भगवद् स्तुति अहोभाव पूर्वक करता है। निष्काम और निःस्वार्थ रहता है तथा समय की नियमबद्धता रखता है। इसी से वह भक्ति में शक्ति का अनुभव करता है। एक भक्त के लिए ईश्वरीय अनुभूति ही श्रेष्ठ वरदान होती है, जो कामना व याचना शून्य मन में साकार होती है। इसे ही सच्ची भक्ति कहते हैं। कोविड महामारी के चलते हर मानव को सच्ची भक्ति अपने जीवन में अपनानी चाहिए। इससे रोग, भय, उद्वेग और अशांति से मुक्ति मिलती है, आत्म शक्ति का जागरण, आत्म-शांति का अनुभव ये भक्ति की फलश्रुति है।
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