नारी की साड़ी
आज मुझे माँ की साड़ी से सम्बंधित एक कविता देखने को मिली जो मन को छू गई। यह कविता सभी पाठको के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
सोना खरे द्वारा
भोपाल ,अभी तक;
मेरी माँ को समर्पित ये साड़ी स्टोरी ।
मेरी माँ ,जिनसे सीखी मैंने ये पुरानी कहानी ,जो आज आपको भी चाही सुनानी।
शुरू हुई वहाँ से ,के जब ,साड़ी के पल्लू के नीचे छिपना, मेरा प्रिय खेल हुआ करता था।
धीरे से ,खाने के बाद के ,हाथ और मुँह पोछने का सबसे सरल उपाय बन गया।
आगे बढ़ी तो ,सबसे प्यारा खिलौना बनी ,मेरी माँ की साड़ी।
जिसे पहन जीत ली दुनिया सारी।
जैसे ही उम्र में जवानी ने दस्तक देनी शुरू की , माँ की साड़ी पहन के ख़ुद को , ना जाने ,कितने बार मिस इंडिया समझ ,देर तक आईने के सामने इतराती रही ।
उसके बाद ,चाहे फेयर वेल हो या इंटरव्यू ,यही साड़ी मेरे बदन पर लहराती रही, मुझे सजाती रही ।
अब वक़्त आया ,इस सारी की गहराई को समझने का ।मेरी शादी का । शादी की शॉपिंग में साड़ी ख़रीदने का।
शादी हुई तब जाना असली मतलब क्या है, इस साड़ी का ।
साड़ी के ,जिस कोने को खोस साड़ी पहन ने की मैं शुरुवात करती हूँ।
वो सिरा ,सिर्फ़ मेरी साड़ी का ही नहीं, मेरे नये परिवार की इज्जत का है ।
और उस सिरे की गाँठ के साथ ये बात भी गाँठ बांध ली कि हर उस नज़र को नीचे दिखाने पर मज़बूर कर दूँगी, जो किसी भी औरत पर ग़लत नीयत से उठी ।
फिर मेरे द्वारा डाली उन प्लेट्स की ,हर प्लीट के अंदर मैंने परिवार के हर सदस्य के साथ हुए खट्टे और मीठे अनुभव को छुपा कर रख लिया है।
लहराकर ये जो पल्लू मेरे काँधो पर आया है, वो अपने साथ , मेरे परिवार की ढेरों ज़िम्मेदारियाँ भी लाया है।
बहू,पत्नी, माँ, भाभी, मामी, चाची बहुत कुछ मुझे बनाया है। और ज़िम्मेदारियों का सारा जिम्मा मेरे काँधे पर आया है।
और,बेटी और बहन की ज़िम्मेदारी को कही सेफ़्टीपिन से फिक्स कर के छिपाया है।
साड़ी , कंधे से उतर कर जो आँचल बन के लहरा रही है ,वो जाने कैसे ,फिर मेरा बचपन मेरे सामने दोहरा रही है।
आज मेरा आँचल,जो कभी मेरी माँ का हुआ करता था, वो ही मेरी बेटी का भी खेल खिलौना , हाथ मुँह पोछने का अँगोछा और बेस्ट ड्रेस का ख़िताब बन ,
फिर एक जेनरेशन बाद मुझे “सोना” का बचपन और माँ की याद दिला रहा है।
ग़ज़ब है ये साड़ी जिसके साथ हमेशा याद की जाएगी नारी।