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    राधा और कृष्ण के एकात्म का पर्व… होली -डॉ. रवींद्र कुमार सोहोनी

    महावीर अग्रवाल 


    मंदसौर १२ मार्च ;अभी तक ;   होली के दिन जब भी आते हैं मुझे अपने बचपन के दिनों में ले जाकर खड़ा कर देते हैं। स्मृति में बार बार गांव की होली लौटती है। स्मृतियों में उन दिनों का रंग इतना ज्यादा पक्का है कि वह मौके बेमौके उभर ही आता है। मुझे आज भी लगता है कि होली हमारी सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा पर्व है। होली हमें यह अवसर उपलब्ध कराती है की हम अपने संकुचित दायरों से बाहर निकलें और जीवन के आनंद उत्सव में शामिल हो। होली अवसाद से निकलकर उत्साह की तरफ़ बढ़ने का दूसरा नाम है। होली हम सबसे कहती है कि छोड़ों अपने तनाव, छोड़ों अपनी हताशा, छोड़ों अपनी निराशा, छोड़ों अपनी पहचान और दायरे, मिल जाओ रंग और गुलाल में सराबोर होकर एक दूसरे के साथ।

    होली हमारी सामाजिकता का सबसे बड़ा पर्व है। यह दिलों को आपस में जोड़ने वाला सबसे बड़ा त्योहार है। इस त्योहार का पारंपरिक अर्थ तो यही है कि हमें अपने भीतर की राक्षसी प्रवृत्तियों को समाप्त करना चाहिए लेकिन बड़े या वृहत्तर अर्थ में होली दूसरों से जुड़ने की प्रेरणा का नाम है। कोई भी दूसरा पर्व इस तरह नहीं जोड़ता जिस तरह यह रंग और गुलाल का उत्सव। यह त्योहार हमें आपसी मतभेद मिटाकर आगे बढ़ने का संदेश देता है।

    होली अवसाद से निकलकर उत्साह की तरफ़ बढ़ने का नाम है। होली आनन्द के बरसने के त्योहार का दूसरा नाम है। हजारों हज़ार साल पहले बृजभान की अद्वितीय सुन्दर अल्हड़ किशोरी ने टेसू (पलाश) फूल जंगल से चुनकर, अपनी आत्मा के जल का प्रेम मिलाकर जो पक्का रंग सांवले सलोने यशोदानंदन पर बांस की पिचकारी से उड़ाया होगा तो राधा और कृष्ण दोनों की आत्मा इसमें सराबोर हो गई होगी। श्याम के प्रीत के रंग में रंगी यह अल्हड़ किशोरी भी श्यामा में बदल गई होगी, और इस तरह होली का पर्व राधा और कृष्ण के एकात्म होने का पर्व बन गया होगा।
    प्राचीनकाल से अर्वाचीन काल तक की होली की यात्रा का वर्णन हमें भागवत पुराण, भविष्य पुराण और जैमिनी की पूर्व मीमांसा से लेकर फ़ारसी के प्रमुख इतिहासकार और विद्वान् अलबरूनी जिसने महमूद गज़नवी के समय 1017ईसवी से 1020ईसवी में भारतवर्ष की यात्रा कर एक यात्रा वृत्तान्त (क़िताब उल हिन्द) में की है देखने को मिलती है।

    होली के साथ एक अत्यन्त प्राचीन कथा महा प्रतापी राजा हिरण्यकश्यपु के पुत्र भक्त प्रह्लाद के साथ भी जुड़ी हुई है। कथा में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान् विष्णु के घोर विरोधी हिरण्यकश्यपु ने विष्णु के परम् उपासक अपने ही पुत्र भक्त प्रह्लाद को किसी भी तरह समाप्त करने का प्रयास किया था। मान्यता है कि होली के दिन सम्राट हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहिन होलिका के साथ सूखी लकड़ियों में प्रहलाद को बैठा दिया था, होलिका को यह ईश्वरीय वरदान प्राप्त था की वह अग्नि भस्म नहीं होगी। भक्त प्रह्लाद होलिका के साथ बैठे और चारों ओर से अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी गई, लेकिन प्रहलाद भस्म नहीं हुए, लेकिन होलिका का अन्त हो गया। संभवतः इसीलिए होली का पर्व मृत्यु की पराजय और जीवन की विजय का भी प्रतीक है।

    हिन्दी साहित्य के मध्यकाल से लेकर उत्तर मध्यकाल जिसे साहित्य में रीतिकाल भी कहा जाता है में राधा और कृष्ण के होली प्रसंगों की इतनी चर्चा देखने और पढ़ने को मिलती है कि राधा और कृष्ण होली के शाश्वत पर्याय बन गए हैं। होली द्वैत को भुलाने का पर्व है, सारी दूरियां भुलाकर, मिटाकर क्यों ना इस दिन राधा और कृष्ण की भांति एकात्म हो जाया जाए। होली के पर्व की अनंत शुभकामनाएं, इति शुभम्…

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