(डॉ. रवीन्द्र कुमार सोहोनी)
मंदसौर ५ अप्रैल ;अभी तक ; अचरज और जिज्ञासा विकसित प्राणियों के स्वभाव का मूलभूत अंग है। इन विकसित प्राणियों में मनुष्य सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित है। किसी अनजानी वस्तु को देखकर मनुष्य की जो प्रतिक्रिया होती है उसमें कौतूहल स्पष्ट दिखाई पड़ता है। मानवीय धरातल पर यह कौतूहल ‘‘कौन’’, ‘‘क्या’’, ‘‘कैसे’’, ‘‘कब’’ तथा ‘‘कहाँ’’ जैसे प्रश्नों के रूप में व्यक्त होता है। विवेक-बुद्धि और भाषा जो मनुष्य की अपनी विशेषता है, इसमें एक भिन्न प्रकार का प्रश्न जोड़ देती है, ‘‘क्यों’’। मनुष्य केवल यह जानकर संतुष्ट नहीं हो जाता कि वस्तु क्या है, उसने किसने बनाया, वह कब उत्पन्न हुई, कैसे उत्पन्न हुई, कैसे काम करती है, तथा कहाँ पाई जाती है। मनुष्य की यह जिज्ञासा होती है कि उसके होने का अर्थ, आधार तथा प्रयोजन क्या है ? मनुष्य मात्र के प्रथम पांच प्रश्न तथ्यों से संबंधित हैं। अनुभवगम्य होने के कारण इन प्रश्नों का समाधान निरीक्षण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
इसके विपरीत प्रश्न – ‘‘क्यों’’ न तो तथ्यात्मक है और न उसका विषय अनुभवगम्य। इस क्यों प्रश्न का समाधान केवल चिन्तन मनन से ही संभव है। चिंतन और मनन की यह श्रेष्ठ परम्परा वैदिक युग से प्रारंभ हुई। वैदिक युग के ऋषि भारतीय सनातन समाज के शलाकापुरूष थे और आध्यात्म तथा राजनीति के क्षेत्रों में सबका मार्गदर्शन करते थे। ऐसे ही एक महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की। वाल्मीकि को भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है और उन्हें ‘‘आदिकवि’’ के रूप में स्थान दिया गया है। महर्षि वाल्मीकि ने भगवान राम के जीवन से संबंधित विवरण को 24000 श्लोकों में लिपिबद्ध कर उपाख्यान ‘रामायण’ लिखी। राम भारतीय जनमानस में आदर्श पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यही कारण हैं कि लगभग 265 प्रकार की रामकथाएं भारतीय समाज जीवन में प्रचलित है। रामायण के पश्चात् तुलसीदास जी कृत ‘रामचरितमानस’ की कथा सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिष्ठा की दृष्टि से सर्वोच्च शिखर पर विराजित है। मानस का स्थान हिन्दी साहित्य में ही नहीं, विश्व साहित्य में निराला है।
रामचरित मानस में तुलसीदास ने श्रीराम के जीवन को एक आदर्श पुत्र, भाई, पति, मित्र और राजा के रूप में जिस प्रकार चित्रित किया है वह अपने आप में अनूठा और अलौकिक है। श्री राम ने अपने वनगमन के दौरान विभिन्न वर्गों, जाति तथा समुदायों के साथ अपने आचरण और व्यवहार से सामाजिक समरसता का संदेश दिया।
श्री राम का चरित्र केवल भारतवर्ष ही नहीं भारतीय उप महाद्वीप के कई देशों जैसे-कम्बोडिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिजी, गुयाना, मॉरीशस, सिंगापुर जैसे अन्यान्य देशों में भी लोकप्रियता के शिखर पर है। भारतीय जनमानस में श्रीराम केवल धार्मिक आस्था का ही केन्द्र नहीं है, अपितु नैतिकता, सामाजिक समरसता, आदर्श राज-व्यवस्था के प्रतीक के रूप में भी स्थापित है। श्रीराम के चरित्र माध्यम से मानवता तथा रावण के चरित्र के माध्यम से दानवता के स्वरूपों का प्रतिपादन हुआ है। मर्यादा ही जीवन की कसौटी है। मर्यादाहीन मानव दानव है। श्रीराम का स्वरूप अत्यंत व्यापक एवं गहन है। राम संस्कृति का अर्थ है, भारतीय संस्कृति, मानवीय संस्कृति और विश्व संस्कृति। राम का आदर्श जीवन भारतीय संस्कृति का एक ऐसा दिव्य प्रभामण्डल है जो न केवल भारत अपितु विश्व को आलोकित करता रहेगा।
भगवान श्री राम का चरित्र धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, करूणा और बड़ों के प्रति सम्मान का संदेश देता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए देश की राजनीति और समाज की दिशा और दशा दोनों बदली जा सकती हैं। प्रभु श्रीराम का चरित्र भारतीय जनमानस की चेतना का पर्याय है।
इसीलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
‘‘राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है, कोई भी कवि बन जाय सहज संभाव्य है।’’
श्री राम की महिमा का वर्णन करते हुए अल्लमा इकबाल ने लिखा था-
‘‘है राम के वजू़द पर हिन्दोस्तां को नाज़, अहले नज़र समझते है, उन्हें इमामें हिन्द‘‘
अजहर इकबाल साहब की दो पंक्तियों के साथ…
‘‘दया अगर लिखने बैठूं तो होते हैं अनुवादित राम,
रावण को भी नमन किया, ऐसे थे मर्यादित राम।’’
आलेख के अन्त में स्व. शम्सी मीनाई की ये पंक्तियां अत्यन्त प्रासंगिक प्रतीत होती है-
‘‘मैं राम पर लिखूं, मेरी हिम्मत नहीं है कुछ,
तुलसी ने वाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ।’’
———————————-
डॉ. रवींद्र कुमार सोहोनी
सम्प्रति -राज्य शिक्षा केन्द्र में पाठ्यपुस्तक स्थाई समिति के सदस्य तथा अग्रणी महाविद्यालय, मंदसौर के पूर्व प्राचार्य।
इसके विपरीत प्रश्न – ‘‘क्यों’’ न तो तथ्यात्मक है और न उसका विषय अनुभवगम्य। इस क्यों प्रश्न का समाधान केवल चिन्तन मनन से ही संभव है। चिंतन और मनन की यह श्रेष्ठ परम्परा वैदिक युग से प्रारंभ हुई। वैदिक युग के ऋषि भारतीय सनातन समाज के शलाकापुरूष थे और आध्यात्म तथा राजनीति के क्षेत्रों में सबका मार्गदर्शन करते थे। ऐसे ही एक महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की। वाल्मीकि को भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है और उन्हें ‘‘आदिकवि’’ के रूप में स्थान दिया गया है। महर्षि वाल्मीकि ने भगवान राम के जीवन से संबंधित विवरण को 24000 श्लोकों में लिपिबद्ध कर उपाख्यान ‘रामायण’ लिखी। राम भारतीय जनमानस में आदर्श पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यही कारण हैं कि लगभग 265 प्रकार की रामकथाएं भारतीय समाज जीवन में प्रचलित है। रामायण के पश्चात् तुलसीदास जी कृत ‘रामचरितमानस’ की कथा सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिष्ठा की दृष्टि से सर्वोच्च शिखर पर विराजित है। मानस का स्थान हिन्दी साहित्य में ही नहीं, विश्व साहित्य में निराला है।
रामचरित मानस में तुलसीदास ने श्रीराम के जीवन को एक आदर्श पुत्र, भाई, पति, मित्र और राजा के रूप में जिस प्रकार चित्रित किया है वह अपने आप में अनूठा और अलौकिक है। श्री राम ने अपने वनगमन के दौरान विभिन्न वर्गों, जाति तथा समुदायों के साथ अपने आचरण और व्यवहार से सामाजिक समरसता का संदेश दिया।
श्री राम का चरित्र केवल भारतवर्ष ही नहीं भारतीय उप महाद्वीप के कई देशों जैसे-कम्बोडिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिजी, गुयाना, मॉरीशस, सिंगापुर जैसे अन्यान्य देशों में भी लोकप्रियता के शिखर पर है। भारतीय जनमानस में श्रीराम केवल धार्मिक आस्था का ही केन्द्र नहीं है, अपितु नैतिकता, सामाजिक समरसता, आदर्श राज-व्यवस्था के प्रतीक के रूप में भी स्थापित है। श्रीराम के चरित्र माध्यम से मानवता तथा रावण के चरित्र के माध्यम से दानवता के स्वरूपों का प्रतिपादन हुआ है। मर्यादा ही जीवन की कसौटी है। मर्यादाहीन मानव दानव है। श्रीराम का स्वरूप अत्यंत व्यापक एवं गहन है। राम संस्कृति का अर्थ है, भारतीय संस्कृति, मानवीय संस्कृति और विश्व संस्कृति। राम का आदर्श जीवन भारतीय संस्कृति का एक ऐसा दिव्य प्रभामण्डल है जो न केवल भारत अपितु विश्व को आलोकित करता रहेगा।
भगवान श्री राम का चरित्र धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, करूणा और बड़ों के प्रति सम्मान का संदेश देता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए देश की राजनीति और समाज की दिशा और दशा दोनों बदली जा सकती हैं। प्रभु श्रीराम का चरित्र भारतीय जनमानस की चेतना का पर्याय है।
इसीलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
‘‘राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है, कोई भी कवि बन जाय सहज संभाव्य है।’’
श्री राम की महिमा का वर्णन करते हुए अल्लमा इकबाल ने लिखा था-
‘‘है राम के वजू़द पर हिन्दोस्तां को नाज़, अहले नज़र समझते है, उन्हें इमामें हिन्द‘‘
अजहर इकबाल साहब की दो पंक्तियों के साथ…
‘‘दया अगर लिखने बैठूं तो होते हैं अनुवादित राम,
रावण को भी नमन किया, ऐसे थे मर्यादित राम।’’
आलेख के अन्त में स्व. शम्सी मीनाई की ये पंक्तियां अत्यन्त प्रासंगिक प्रतीत होती है-
‘‘मैं राम पर लिखूं, मेरी हिम्मत नहीं है कुछ,
तुलसी ने वाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ।’’
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डॉ. रवींद्र कुमार सोहोनी
सम्प्रति -राज्य शिक्षा केन्द्र में पाठ्यपुस्तक स्थाई समिति के सदस्य तथा अग्रणी महाविद्यालय, मंदसौर के पूर्व प्राचार्य।