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    जाने भी दो यारों

    स्वाभिमान शुक्ल
                             जबलपुर ननिहाल है तो हर गर्मियों में आ जाते थे । छोटे मामा नाना नानी के साथ ही थे । मामा राजा हुआ करते थे और हम राज कुमार । गर्मियों के 3 महीने दो काम रहते थे सुरेन्द्र मोहन पाठक और फिल्म। साइकिल से  सब टॉकीज पहुंच में थीं । मेरे साथ सारे कर्मों में साथी मेरा बचपन का दोस्त संदीप शुक्ला गुड्डू रहता था । हम दोनों साइकिल पर चढ़े और चले सिनेमा,लाइब्रेरी या घूमने फिरने । एक लाजवाब लाइब्रेरी बुनियादी के रास्ते में पड़ती थी,वहां सभी पत्रिकाएं और किताबें देखने मिल जाती थीं ।वहीं पहली बार रिलायंस के विज्ञापन  में आती मेहर जेसिया पर अंग्रेजी इंडिया टुडे का विशेष अंक देखा था । खूबसूरती  का नाम मेहर जेसिया भी तब पता चला था पर तब ₹ 25 लगाकर खरीदना बूते से बाहर की सोच थी ।
                       दो साल मिडिल बुनियादी में भी पढ़ा हूं तो मोहर्रम के अवसर पर जब उधर से निकला तो ना वहां लाइब्रेरी थी और ना ही बुनियादी ,प्राथमिक,मिडिल जड़ से ही गायब थे। मॉडल के स्वरूप का भी संक्षिप्तीकरण कर दिया गया है । सरकार का बस चले तो अगली पीढ़ी को  टेली प्रांपटर से भी पढ़ने लायक ना छोड़े । जबलपुर और भोपाल में फिल्म रिलीज होने में अंतर रहता था । भोपाल इंदौर में फिल्म गुरुवार को रिलीज होती थीं और एक साथ कई सिनेमा में लगती थीं उसी जगह जबलपुर में शुक्रवार को  रिलीज होती थी और एक ही सिनेमा में 6 शो तक चलते थे ।  बुनियादी से सुबह 9 बजे वाले शो में शीला में कुर्बानी देखी थी । आओ देखें वर्ल्ड सिनेमा में सबसे पहली या रोमांचक फिल्म देखना टास्क आया था, तब सोचा था कुर्बानी कैसे देखी थी और क्यों देखी थी बता दें फिर सोचा  बदमाशी  बेपर्दा हो जाएगी तो छोड़ दिया । उस वर्ष राजेश खन्ना की पापी पेट का सवाल है ज्योति में रिलीज हुई । जबलपुर के ज्योति सिनेमा का साउंड सिस्टम शायद सबसे बेहतरीन था । उसमें फिल्म देखने का अनुभव हमेशा लाजवाब होता था । हम फिल्म देखने जाने लगे तो मामा बोले सुबह से ही भीड़ थी मत जाओ टिकिट नहीं मिलेगी । पर हम जुगल जोड़ी निकल गए, टिकट नहीं मिली तो साइकिल लेकर आगे बढ़े तो विनीत में उसी दिन  जाने भी दो यारों रिलीज़ हुई थी । खाली पड़ी थी नसरुद्दीन शाह को हम दोनों ही पहचानते थे तो घुस गए ,निकले तो पहले दिन ही मालूम था एक क्लासिक फिल्म अनायास मिल गई है । घर आकर तारीफ की तो मामा लोग समझे खुद फंस गए तो हमें फंसा रहे हैं । पर फिल्म माउथ पब्लिसिटी से हाउसफुल हो गई और बाद में टैक्स फ्री भी। आज का समय होता तो …. जाने भी दो यारों:)
    नौकरी कभी आसान नहीं होती और यदि आपको आगे बढ़ना है तो वह पहले एक हाथ से लेती है फिर चीन्ह चीन्ह कर थोड़ा सा कुछ देती है । 2007 में जब अफसर बना था तो जबलपुर मंडल पोस्टिंग मिली थी ।जबलपुर मंडल में बाहर से आने वाला मैं इकलौता अधिकारी था,अन्य सभी जबलपुर के जबलपुर में रुक गए थे या जबलपुर वाले बाहर से जबलपुर आए थे । तब बड़ा मन था, मेरा भी और घर वालों का भी कि प्रॉपर जबलपुर पोस्टिंग मिल जाए तो सब परिवार सहित  जबलपुर आ जाएंगे। कटनी भी मिल जाता तो शहर बदल लेता पर मांगे से कुछ कभी दिया ही नहीं गया । खैर एक साल सागर और दो साल बीना में रहकर भोपाल वापिस आ गया था । 2023 से पहले प्रमोशन बैच  टच होने पर cr इत्यादि के मानक ठीक रहने पर स्वतः हो जाता था और पोस्टिंग में असुविधा होने पर ना जाने की स्वतंत्रता रहती थी,किंतु 2023 से आवेदन आमंत्रित किए जाने लगे और उसमें बंधन लग गया कि दी गई पोस्टिंग पर जाना ही होगा । कछुआ चाल से चलती नौकरी कुलांचे मारने लगी । 2025 में जब मेरा बैच टच हुआ तो प्रमोशन के लिए मेरे द्वारा भी आवेदन कर दिया गया , सब कुछ ठीक होने के कारण इस वर्ष प्रमोशन के उपरांत प्रशासनिक अधिकारी से प्रबंधक के पद पर प्रमोट हो गया और जब पोस्टिंग आई तो जबलपुर में जिला शाखा में मैनेजर एडमिन के रूप में मेरी पद स्थापना की गई । सबसे पहला भाव मन में यही आया ऊपर वाले से मांगो कब और देता कब है । हमेशा  हमेशा का ही रोना है दांत रहते हैं तो चने नहीं मिलते और जब चने आते हैं तो दांत चले जाते हैं।  पत्नी और बिटिया  भोपाल छोड़ना नहीं चाहते थे । अभी तक जितने भी प्रमोशन हुए हैं या ट्रांसफर हुए हैं, मैं हर बार परिवार को भोपाल पर बेस बनाकर गया हूं । हर पोस्टिंग अकेले ही काटी है, ब्यावरा भी जब ट्रांसफर हुआ था तो अकेला ही गया था, किंतु कॉविड और उसके बाद के दुश्वारियां ने पत्नी को साथ ले जाने के लिए मजबूर किया।  तब मैं और पत्नी सोमवार से शुक्रवार तक ब्यावरा में रहकर अप डाउन किया करते थे । किंतु 2022 में पिताजी का असामयिक अवसान हो गया, पिताजी के अवसान ने मां को एक गहरा सदमा दे दिया । मां शारीरिक रूप से कमजोर होती चली गईं ,उनकी कमर भी झुकने लगी है और मानसिक रूप से भी उन पर असर हुआ है । मां शनै शनै
    सब भूल रही है, खुद के बच्चों के नाम, बहू-बिटिया का नाम, पोते पोतियों के नाम उनको याद नहीं रहते, कौन सा वार है, महीना  कौन सा चल रहा है सुबह है या शाम है वह सब बिसरा बैठी है। पत्नी बोली की बिटिया का 11th क्लास रहेगा उसको स्कूल के अलावा कोचिंग क्लासेस भी भेजना रहेगा । मां को 1 मिनट भी अकेला घर पर छोड़ना रिस्की हो जाता है,मां कई बार निकल के बाहर चल देती हैं या दरवाजा लगा लेती हैं ।अकेली वह मां और बिटिया को नहीं संभाल पाएगी । नौकरी भी इन दिनों कठिन हो गई है ,हालांकि अब साप्ताहिक रूप से 2 दिन का अवकाश होने लगा है किंतु हेडक्वार्टर छोड़ने पर पाबंदियां हैं हर हफ्ते जबलपुर से भोपाल जाना संभव नहीं हो पाता है और यदि जिद्द की जाती है तो नौकरी कठिन हो जाती है ।जीवन की दुश्वारियों में कोशिश करना चाहिए की नौकरी बिना दुश्वरी के चलती रहे।  यह सब कारण थे जिनके कारण यह निर्णय लिया मैंने इस बार दलबल के साथ जबलपुर चलते हैं दोनों हाथ पसार कर जबलपुर का आलिंगन करते हैं  ।
    बहुत छोटे में एक बार गुड्डू ने पूछा था- तुम्हें कौन सा मौसम पसंद है? मैने सहज रूप से कह दिया था बारिश, गुड्डू जो इन दिनों रेलवे में विजिलेंस में पदस्थ है, हमेशा से तार्किक और बहुत बारीकी से सोचता है या यूं कहें वह बचपन से ही समझदार है । मेरे द्वारा बारिश को पसंद करने पर उसने कहा था तो तुम भोपाल में रहते हो जबलपुर में रहो और बारिश पसंद करो ऐसा हो ही नहीं सकता ।  कालांतर में जबलपुर में बारिश से कई बार यह वास्ता पड़ा और जाना की छोटे से हिस्से में बना हुआ शहर बेदर्दी से बसा हुआ है और उसमें सुधार की भी कोशिश नहीं की गई है । पूरी तरह से हाथ पैर मारने के बाद ईश्वर से लेकर इंसानों तक को अपनी परेशानी कह देने के बाद भी जब पोस्टिंग में परिवर्तन नहीं हुआ तो मई के आखिरी दिनों में प्रमोशन में जबलपुर ज्वाइन कर लिया । ज्वाइन करने के बाद ट्रेकर्स फ्रेंड्स ने और सामान का ट्रक जिस दिन निकला सैम और इरफान ने भोपाल से विदा कर दिया । जबलपुर में 3 साल के कार्य अनुभव और आडिट  के दौरान जब जबलपुर आया था तो पाया था शहर कितना ही बेतरतीब हो, lic Jabalpur का वर्क कल्चर बेहतरीन है। काम का ज्ञान और समर्पण सीखने लायक है । जो जहां कार्य कर रहा है समर्पित है और उस्ताद है । ज्वाइन करने के ही साथ घर ढूंढने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी थी । जबलपुर में ही छोटी वाली बहन भी ब्याही हुई है तो एक टू व्हीलर उसके हिस्से का मैंने ले लिया और ऑफिस आने जाने के अलावा बिटिया के स्कूल ऐडमिशन और घर ढूंढने के लिए शहर के अलग-अलग हिस्से में जाने लगा ।  ट्रैफिक का सेंस तो हर शहर में निकृष्टतम रूप में पहुंच रहा है गाड़ियां किस तरह से चलानी है, सड़क पर क्या अनुशासन बरतना है सभी लोग और सभी शहर भूलते जा रहे हैं। एक समय भोपाल का ट्रैफिक सबसे अनुशासित होता था किंतु भोपाल का ट्रैफिक भी बिगड़ने लगा है । हम भोपाल वालों को इंदौर से अक्सर वास्ता पड़ता है बहुत समय तक एक बहन भी इंदौर में रही है तो इंदौर अक्सर आना जाना होता था और इंदौर के ट्रैफिक पर भी हमेशा विपरीत टिप्पणियां रहती थी किंतु जबलपुर में जब पिछली एक महीने से रह रहा हूं तो शहर की सड़क पर उतरने के लिए हर बार ईश्वर का स्मरण करता हूं । ऑडिट के दौरान किसी जब छोटे शहर में गया था तो वहां एक छोटा ऑटो में यात्रा की तो उसके पीछे लिखा हुआ था बड़े होकर बस बनेगा शायद जबलपुर भी विस्तारित होकर सुधर कर भोपाल होने का प्रयास करें पर तब तक भोपाल भी आगे बढ़ चुका रहेगा वह किसी और शहर जैसा होने लगेगा ।
    सब कुछ ठीक रहा तो आने वाले दो साल और विपरीत परिस्थितियों में 3 साल के लिए जबलपुर जैसा भी है अपना है मेरा पति मेरा देवता है टाइप । भोपाल  उसकी यादों को जाने देना है,जाने भी दो यारों। कालीधर लापता के अनुसार जबलपुर दोनों बांह फैलाकर आलिंगन है ।

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