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पापकर्म होने पर छूपाओं मत, सच्चे मन से प्रायश्चित करो- साध्वी श्री उर्विता श्रीजी म.सा.

महावीर अग्रवाल 
 मंदसौर २ सितम्बर ;अभी तक ;   जैन धर्मावलम्बियों के लिये पर्युषण महापर्व में 11 कर्तव्य जो वर्षभर में किये जाने जरूरी है वे जरूर करना चाहिये। उन कर्तव्यों में आत्म आलोचना अर्थात प्रायश्चित भी एक कर्तव्य है। प्रायश्चित करने के लिये मन वचन काया तीनों में आलोचना का भाव जरूरी है। कई बार पापकर्म होने पर हम उन्हें छिपाते है। उन कर्मों को छुपाओ मत बल्कि सच्चे मन से उसका प्रायश्चित करो।
                                     क्त उद्गार प.पू. जैन साध्वी श्री उर्विताश्रीजी म.सा. ने साध्वी श्री विशुद्धप्रज्ञाजी म.सा. की पावन उपस्थिति में चौधरी कॉलोनी स्थित रूपचांद आराधना भवन में आयोजित धमर्सभा में कहे। आपने पर्युषण पर्व के तृतीय दिवस सोमवार को यहां धर्मसभा में कहा कि जैन धर्मावलम्बियों को वर्ष में जो 11 कर्तव्य पूरे करने जरूरी है उनमें आलोचना अर्थात प्रायश्चित का कर्तव्य बहुत जरूरी है। जब तक हम हमारे द्वारा जाने अंजाने में किये गये पापकर्म की आलोचना नहीं करेंगे तब तक सच्चे जैन या श्रावक श्राविका नहीं कहलायेंगे। पर्युषण पर्व में 17 प्रतिक्रमण श्रावक श्राविका को करना चाहिये जिसमें प्रातःकाल व सायंकाल दोनों समय का प्रतिक्रमण शामिल है। जिस प्रकार उद्यान में उल्लू का बसेरा होने पर उद्यान उजड़ जाता है उसी प्रकार जीवन में पापकर्म आने पर मन मस्तिष्क बूरे कार्यों की ओर अग्रसर हो सकता है। ऐसे में पापकर्म की आलोचना जरूरी है। साध्वजी ने कहा कि मनुष्य से जाने अंजाने में भूल या पाप हो सकता है ऐसे में सच्चे मन से हम उसका पश्चाताप करते है तो आत्मा मे ंलगी पापकर्म की कालिख साफ हो सकती है। इसलिये जीवन में आलोचना (प्रायश्चित) जरूरी है।
जैसी मति होगी वैसी गति मिलेगी- साध्वीजी ने कहा कि मृत्यु के बाद प्रत्येक प्राणी की चार गति होती है। हमें कौनसी गति में जाना है यह हमारी मति पर निर्भर करता है। यदि नरक व तिरयन्च गति में नहीं जाना है तो पापकर्म होने पर प्रायश्चित करो तथा आत्मा की मलिनता को साफ करो। हमारी कथनी व करनी में अंतर नहीं होना चाहिये।
पापी व्यक्ति भी मोक्ष पा सकता है-.
                              साध्वीजी ने अर्जुन माली का वृतान्त बताते हुए कहा कि अर्जुन माली प्र्रतिदिन 6 पुरूष एवं 1 महिला की हत्या कर देता ािा। उसने अपने जीवन काल में में 1260 हत्याये की थी  लेकिन जब वह प्रभु महावीर की शरण में आया तो उसने पापकर्म को छोड़ सभी पापों के लिये प्रायश्चित किया तथा अपनी उत्कृष्ठ धर्मसाधना से मोक्ष गति पाई। हम भी मोक्ष गति पा सकते है। लेकिन हमारी प्रायश्चित की भावना अर्जुन माली की भांति उत्कृष्ट होना चाहिये।

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