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जागरण संस्था ने प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद का जन्मदिन अधिवक्ता दिवस के रूप में मनाया
महावीर अग्रवाल
मंदसौर ३ दिसंबर ;अभी तक ; देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी का जन्म दिवस अधिवक्ता दिवस के रूप में जागरण संस्था द्वारा ऑनर्स एकेडमी पर बनाया गया। कार्यक्रम में अधिवक्ता मनीष दादूपंथी व अधिवक्ता शैलेंद्र पलोदिया का सम्मान नरेंद्र गुप्ता, देवेंद्र शर्मा, दिनेश नलवाया, ब्रजकिशोर जाट, राजेंद्र श्रीवास्तव द्वारा किया गया।
अधिवक्ता दादूपंथी ने अपने उद्बोधन में बताया भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार में हुआ था उनके जन्म की वर्षगांठ पर प्रत्येक तीन दिसंबर को अधिवक्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है। वह एक विद्वान अधिवक्ता थे तथा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में थे। वह 12 वर्षों तक राष्ट्रपति रहे तथा उन्हें 1962 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। स्वतंत्रता संग्राम में अधिवक्ताओं का बहुत योगदान रहा। महात्मा गांधी से लेकर भारत रत्न भीमराव आंबेडकर ने वकालत के पेशे से अपने जीवन की शुरुआत की। भारत वकालत विश्व भर में अत्यंत सम्मानीय और गरिमामय पेशा है। भारत में भी वकालत गरिमामय और सत्कार के पेशे के तौर पर हर दौर में बना रहा है। स्वतंत्रता संग्राम में वकीलों से अधिक योगदान किसी और पेशे का नहीं रहा। स्वतंत्रता संग्राम में वकीलों ने जमकर लोहा लिया है। किसी युग में वकालत इंग्लैंड का राजशाही पेशा रहा है। संभ्रांत घरानों के लोग वकालत करते थे। वकील के गाउन में पीछे दो जेब होती थी, इन पीछे दो जेबों का अर्थ था अपने क्लाइंट से कोई राशि नहीं मांगी जाना अर्थात क्लाइंट जो चाहे अपनी इच्छा अनुसार जेब में परिश्रमिक डाल जाए। अधिवक्ता की गरिमा वर्तमान भारत में भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। अनेकों पेशों का आज आधुनिक बाज़ारवादी युग में प्रवेश हुआ है पर वकालत की चमक पर कोई पॉलिश अब तक भरी नहीं हुई है। आज भी भारतभर में बड़ी संख्या में लोग अधिवक्ता के लिए रजिस्टर हो रहे हैं। भारत की सारी न्याय व्यवस्था अधिवक्ता के काम पर टिकी हुई है। इतना कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि न्याय मिल ही इसलिए रहा है क्योंकि अधिवक्ता उपलब्ध है। अधिवक्ता न्यायालय के अधिकारी है, कभी कभी वह न्यायाधीश से उच्च स्तरीय प्रतीत होते क्योंकि संपूर्ण न्याय व्यवस्था का भार इन ही काले कोट के कंधों पर है। अगर अधिवक्ता न हो तो भारत की जनता को न्याय मिलना असंभव सा हो चले।
मनुष्य की असभ्य युग से सभ्य युग तक आने की यात्रा बहुत लंबी है और इस यात्रा के बाद विधि शासन का जन्म होता है और विधि शासन को बनाए रखने वाली अदृश्य शक्ति एक प्रकार से अधिवक्ता भी है। यह बात पूरी तरह ठीक नहीं है कि विधि शासन को केवल सरकार बरकरार रखती है अपितु इसमें अधिवक्ता का भी विस्तृत और अकल्पनीय योगदान है परन्तु वह अदृश्य है जो दिखाई नहीं दे रहा है, यह अदृश्य कंधे ही इतने विशाल देश के विधि शासन के पर्वत को लेकर चल रहें है क्योंकि अधिवक्ता के नहीं होने पर न्यायालय के संचालन की कल्पना भी व्यर्थ है।