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पन्ना के केन-बेतवा लिंक परियोजना ने आदिवासी समाज को कर दिया बर्बाद, जयस संगठन करेगा आन्दोलन

दीपक शर्मा

पन्ना २६ नवंबर ;अभी तक ;  देश को आज़ाद हुए 76 साल हो चुके हैं, लेकिन आदिवासी बहुल क्षेत्रों में विकास के दावे अभी भी अधूरे ही साबित हो रहे हैं। मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के करीब एक दर्जन गाँव, जो केन-बेतवा लिंक परियोजना से प्रभावित हैं, न केवल बुनियादी सुविधाओं से  वंचित हैं, बल्कि अब विस्थापन के संकट से भी जूझ रहे हैं। यह संकट सिर्फ जमीन छोड़ने का नहीं, बल्कि उनके जीवन, आजीविका और सांस्कृतिक पहचान के मिट जाने का है।

उक्त मामले के संबंध में विस्थापित गाँव कें लोगो ने बताया कि, पन्ना जिले के गहदरा, कूड़न, खमरी और मझौली जैसे प्रभावित गाँवों की हालत बेहद खराब है। इन गाँवों में पक्की सड़कें नहीं हैं। गाँव के अंदर पहुँचने के लिए कच्चे रास्तों पर घंटों का सफर तय करना पड़ता है। यहाँ बिजली का नामोनिशान नहीं है। स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था इतनी खराब है कि महिलाओं और बच्चों को दूर-दूर तक जाकर पानी लाना पड़ता है। गहदरा गाँव की 70 वर्षीय शोभारानी, जिनकी झुर्रियों में संघर्ष की कहानियाँ दर्ज हैं, विस्थापन की त्रासदी को लेकर बेहद आहत हैं। उनकी आवाज़ में दर्द और नाराज़गी दोनों साफ झलकते हैं।

उन्होने बताया कि “यह जमीन हमारे पूर्वजों की धरोहर है। हम इसे कैसे छोड़ सकते हैं? पानी लाने के लिए हमारे बच्चे कई किलोमीटर दूर जाते हैं। इतनी छोटी उम्र में ही वे अपने वजन से दोगुना पानी उठाकर लाते हैं। सरकार को इन बच्चों की तकलीफें क्यों नहीं दिखाई देतीं? अगर कोई बीमार पड़ जाए, तो अस्पताल ले जाने के लिए एंबुलेंस तक यहाँ नहीं पहुँचती। अक्सर लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं।“ शोभारानी की यह पीड़ा सिर्फ व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि पूरे समुदाय का दर्द है।

उनका कहना है कि विस्थापन के नाम पर सरकार ने उनसे उनकी जमीन, उनकी पहचान और उनका जीवन छीन लिया है। उनका सरकार से सवाल है, “क्या हमारे जीवन की कोई कीमत नहीं?“ विस्थापन का दर्द केन-बेतवा लिंक परियोजना के तहत पन्ना जिले के आठ गाँवोंकृकूड़ान, गहदरा, कोनी, मझौली, खमरी, बिल्हटा, और कटहरी आदिवासी निवासियों को विस्थापित किया जाना तय है। यह परियोजना केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा है। इसका उद्देश्य सूखा प्रभावित क्षेत्रों में सिंचाई और जल उपलब्धता बढ़ाना है। लेकिन इस परियोजना का सबसे बड़ा नुकसान इन आदिवासी परिवारों को उठाना पड़ रहा है।

ग्रामीणों का कहना है कि विस्थापन की प्रक्रिया में न तो उनकी राय ली गई, न ही उन्हें पूरी जानकारी दी गई। उन्हें यह तक नहीं बताया गया कि कब उनकी जमीनों का सर्वे हुआ और कब मुआवजा तय किया गया। खमरी गाँव के तीरथ सिंह ने बताया कि “मुआवजा इतना कम दिया जा रहा है कि उससे कोई दूसरी जमीन खरीद पाना नामुमकिन है। हम कहें कि सरकार हमें धोखा दे रही है, तो यह गलत नहीं होगा। यह जमीन हमारे पूर्वजों की निशानी है। इसे छोड़कर जाने का मतलब है अपनी संस्कृति और अस्तित्व को मिटाना। हम यहाँ से नहीं जाएंगे।”

तीरथ सिंह आगे कहते हैं,- “हमारी आजीविका खेती और पशुपालन पर निर्भर है। विस्थापन के बाद हमारे पास कुछ नहीं बचेगा। सरकार को हमारी समस्याओं की परवाह ही नहीं है।” विस्थापन प्रक्रिया में भारी खामियां है मुआवजा राशि इतनी कम है कि विस्थापित परिवार इसके जरिए दूसरी जमीन नहीं खरीद सकते। 18 वर्ष से ऊपर के युवाओं को मुआवजा सूची में शामिल नहीं किया गया। पशुधन, जो आदिवासियों की आजीविका का मुख्य स्रोत है, उसके लिए भी उचित मुआवजा नहीं दिया जा रहा। पुनर्वास की प्रक्रिया पूरी तरह अधूरी है। आदिवासी संस्कृति और अस्तित्व पर खतरा यह क्षेत्र कभी गोंडवाना साम्राज्य का हिस्सा था, जहाँ गोंड आदिवासियों का शासन था। पीढ़ियों से ये आदिवासी यहाँ खेती, पशुपालन, और वन उत्पादों से अपनी आजीविका चलाते आ रहे हैं। अब विस्थापन की वजह से उनकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान खतरे में है। ग्रामीणों की मुख्य मांगे जमीन के बदले जमीन।

ग्रामीणों का कहना है कि उन्हें ऐसी जमीन दी जाए, जहाँ वे खेती कर सकें। मुआवजा बढ़ाया जाए। वर्तमान मुआवजा राशि से नई जमीन खरीदना असंभव है। 18 वर्ष से अधिक उम्र के युवाओं को मुआवजा दिया जाए। यह उनके भविष्य के लिए जरूरी है। पुनर्वास योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। ग्रामीणों ने कहा कि यदि हमारी मांगे नहीं मानी गई तो आंदोलन किया जायेगा, उक्त मामले को लेकर जयस संगठन के अध्यक्ष मुकेश गोड़ ने कहा कि यदि आदिवासी वर्ग की मांगो को नहीं माना जायेगा तो हम सयज के प्रदेश अध्यक्ष के नेत्रत्व में केन बेतवा लिंक के परियोजना के विरोध में आन्दोलन करेगें।

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