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आदिवासी रहते एमपी में सुविधाओं के लिए जाते हैं छत्तीसगढ़, खुले आसमान के नीचे पढ़ाई कर रहे स्कूली बच्चें ..
आनंद ताम्रकार
बालाघाट २४ दिसंबर ;अभी तक; बालाघाट जिले का आदिवासी नक्सल प्रभावित व वन गांव की दासता अजाब हैं, जहां ना तो स्कूल हैं, ना ही आंगनबाड़ी है और ना ही मूलभूत सुविधा है, फिर भी यहां के आदिवासी जीवन यापन करने को मजबूर है। जी हां हम बात कर रहे हैं जिले से करीब 110 किमी दूर लांजी विकासखंड के ग्राम पंचायत खुर्सीटोला अंतर्गत छत्तीसगढ़ सीमा पर बसा नक्सल प्रभावित व वन ग्राम धिरी की। जहां पर पदस्थ्य शिक्षिका महिने में कुछेक दिन पहुंच पाती हैं।
जानकारी अनुसार जिले के लांजी क्षेत्र अंतर्गत शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय संकुल अंतर्गत आने वाले ग्राम धीरी मं स्कूल भवन नही होने से प्राथमिक स्कूल, अतिथि शिक्षक कालूराम सिरसाम के घर लगाया जाता है, अभी मौसम खुला है तो अभी शाला खुले आसमान में लगाई जा रही है, जहां प्रभारी प्रधानपाठिका दुर्गेश पटले और अतिथि शिक्षक कालूराम सिरसाम, यहां बच्चों को अध्यापन करा रहे है. दूरस्थ वनग्राम धीरी के बच्चों के लिए भले ही प्राथमिक शाला भवन नही हो लेकिन उनका पढ़ाई का स्तर विपरित हालत में भी कम नहीं है और सामान्य स्तर में थोड़े सुधार की जरूरत है, लेकिन बच्चो में पढ़ाई की ललक ऐसी कि वह खुले आसमान के नीचे भी पढ़ाई करने हौंसलो के साथ स्कूल पहुंचते है।
अतिथि शिक्षक के घर में लग रहीं स्कूल
प्राथमिक शाला धीरी स्कूल की प्रभारी प्रधानपाठिका दुर्गेश पटले का कहना है कि शाला भवन नहीं होने से शाला का संचालन, अतिथि शिक्षक के घर पर किया जाता है. भवन को लेकर जानकारी पर उनका कहना है कि 2021 में प्लींथ तक काम हो सका है लेकिन एक साल से काम बंद है. संकुल प्राचार्य टी. डी. लिल्हारे ने भले ही अब तक इसकी जानकारी के बावजूद कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन मीडिया के सामने उन्होंने पूरी जानकारी बयां करने के साथ ही यह विश्वास दिलाया कि वह इस मामले को लेकर अब कलेक्टर और डीईओ महोदय से चर्चा करेंगे.संकुल प्राचार्य श्री लिल्हारे की मानें तो 2019-20 में प्राथमिक शाला भवन स्वीकृत किया गया था, लेकिन प्लींथ बनने के बाद से काम पूरी तरह से बंद है और काम बंद हुए लगभग एक साल हो गया है. उन्होंने बताया कि विपरित परिस्थिति में भी यहां अध्ययनरत बच्चों की पढ़ाई सामान्य है, जिसमें सुधार की जरूरत है.
नक्सलियों के भय से छोड़े थे गांव
ग्रामीणों ने जानकारी में बताया कि ग्राम धीरी और नवाटोला गांव में ग्रामीण निवासरत थे, लेकिन नक्सलियों के बड़ते प्रभाव और पुलिस की परेशानी के कारण वर्ष 2007 में जिला प्रशासन के द्वारा हमें लांजी के पास बकरामुड़ी में बसाया गया था, लेकिन एक वर्ष रहने के बाद कोई सुविधा और रोजगार नहीं मिलने के कारण पुन: 2008 में 14 परिवार अपने कच्चे मकान में वापस आ गये क्योंकि यहा पर खेती करने के लिए जमीन थीं और रोजगार के लिए कुछ वन विभाग काम देते थे इस वजह से वापस आना पड़ा था। जिसके बाद आज 15 परिवार निवासरत हैं जहां करीब 70 की आबादी का गांव हैं पर धीरी से लगा गांव नवाटोला के ग्रामीण अभी भी बकरामुड़ी में निवासरत हैं।
राशन के लिए पहुंचते हैं छत्तिसगढ़
आदिवासी ग्रामीणों ने कहा कि ग्राम धीरी से बालाघाट जिला या फिर लांजी तहसील जाना होता हैं तो जंगल से घिरा हुआ पत्थरीला मार्ग होते हुए जाना पड़ता हैं, जिसमें वन्यप्राणियों का भय बना रहता हैं। इसलिए हमें छत्तिसगढ होते हुए लांजी और बालाघाट जाना पड़ता हैं। वहीं अगर स्वास्थ्य सुविधा, रोजगार के लिए और राशन के लिए गांव से करीब 500 मीटर के बाद ग्राम छत्तिसगढ़ की सीमा लग जाती हैं, इसलिए करीब 20 किमी दूर पैदल ग्राम गातापार जाना पड़ता हैं। जहां बेहद ही परेशानी होती हैं। सरकार हमारी दशा की ओर ध्यान दे जिससे की हमें मुलभुत सुविधाएं मिल सके।