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मनुष्य भव दुर्लभ है, इसका सदुपयोग करे, पापकर्म से बचे- योगरूचि विजयजी
महावीर अग्रवाल
मंदसौर २४ सितम्बर ;अभी तक ; संसार के सभी धर्म मनुष्य भव को श्रेष्ठ मानते है जैन धर्म व दर्शन का मानना है कि मनुष्य को अपने भव की महत्ता को समझते हुए उसके अनुरूप मर्यादित व्यवहार करना चाहिये। यदि हम अपने मनुष्य भव को विषय वासना, धन संपत्ति के संग्रहण और पापकर्म में ही बर्बाद कर देंगे तो हमें निरक गति मिलेगी। अगली गति हमारी सुधरे इसके लिये जरूरी है कि धर्म का सानिध्य लो। अपने आत्मकल्याण की चिंता करो।
उक्त उद्गार प.पू. जैन संत श्री योगरूचि विजयजी म.सा. ने नईआबादी स्थित आराधना भवन मंदिर के हाल में आयोजित धर्मसभा में कहे। आपने मंगलवार को यहां धर्मसभा में पुष्पचुलिका शास्त्र का महत्व व उसका सार बताते हुए कहा कि यह जैन आगम (शास्त्र) का 11वां उपांग है। इस शास्त्र में पुष्प चुलिका साध्वीजी व उसकी 10 शिष्याओं के जीवन पर विस्तार से चर्चा की गई है। भगवान पार्श्वनाथ की आज्ञाकारी साध्वी श्री पुष्पचुलिका व उनकी 10 शिष्याएं जो कि सांसारिक जीवन में धनाढ्य परिवारों से थी उनके जीवन पर इस शास्त्र में बताया गया है। पुष्पचुलिका व उनकी 10 शिष्याएं संयम जीवन में रहने के बावजूद भी शरीर की ज्यादा चिंता करती थी वे स्नान करना और शरीर को अनावश्यक रूप से पोछना इत्यादि पापकर्म जो कि जैन साधु के आचरण के विरूद्ध थे उन्होंने किये और उसका प्रायश्चित आलोचना नहीं की। उस पाप के परिणाम स्वरूप वे मृत्यु के बाद व्यंतर देवीया बनी जबकि वे पापकर्म नहीं करती और उसका प्रायश्चित कर लेती तो उन्हें देवगति भी मिल सकती थी। जीवन में हमें भी छोटे छोटे दोषों से दूर रहना चाहिए ताकि मृत्यु के बाद हमारी दुर्गति नहीं हो। धर्मसभा में शास्त्र विराने व प्रभावना का धर्मलाभ त्रिलोक जैन ने लिया।