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आत्मा की शुद्धि करना ही धर्म है, राग द्वेष छोड़े आत्म शुद्धि का मार्ग अपनाये- पारसमुनि
महावीर अग्रवाल
मन्दसौर २१ नवंबर ;अभी तक; आत्मा की शुद्धि ही धर्म है। आत्मशुद्धि के लिये हम जो कर्म करते है वही सच्चे अर्थों में हमारा धर्म होना चाहिये। संसार में हम जिसे धर्म समझते है वे धर्म नहीं बल्कि पूजा पद्धति व मत-मतांतर है जो आत्मा राग द्वेष छोड़ देती है वहीं आत्मा परम आनंद को प्राप्त करती है।
उक्त उद्गार परम पूज्य आचार्य श्री विजयराजजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती श्री पारसमुनि म.सा. ने नवकार भवन शास्त्री कॉलोनी में आयोजित धर्मसभा में कहे। आपने रविवार को यहां आयोजित धर्मसभा में कहा कि कर्मबंधन के 3 साधन है काया से, वचन ने, मन से, कर्मबंधन मानव करता है। हमें तीनों से सद्कर्म करने चाहिये तथा बुरे कर्म करने से बचना चाहिये। जिन आगमों में कर्मों के 8 प्रकार बताये है सभी प्रकार 8 प्रकार कर्म करता है। इनमें कितना शुभ व अशुभ कर्म करता है उस आत्मा की गति उसी पर निर्भर करती हैं आपने कहा कि मन चंचल है वह क्षणिक व भौतिक साधनों में सुख देखती हैं भले ही हम मन, वचन एवं काया से बुरे कर्म करे लेकिन भोगना हमारी आत्मा को ही है। मन व शरीर भौतिक साधनों विषय वासना से सुख प्राप्त करने का अनुभव करते है लेकिन इससे आत्म कल्याण नहीं होता है। आपने कहा कि सबके कर्म बंधन भिन्न होते है। इसी कारण उन्हें फल भी भिन्न भिन्न ही भोगने पड़ते है। इसी कारण दो सगे भाई जिसे माता-पिता से समान सम्पत्ति, समान शिक्षा व समान अवसर मिलते है, उसके बावजूद भी एक भाई अमीर बनकर सुख भोगता है और दूसरा भाई कंगाल या मध्यम श्रेणी का जीवन जीता है। इसलिये जीवन में श्रेष्ठ कर्म करो, बुरे कर्म करने से बचो। धर्मसभा में श्री अभिनवमुनिजी ने भी अपने विचार रखे। धर्मसभा में बड़ी संख्या मंे धर्मालुजन उपस्थित थे।
उक्त उद्गार परम पूज्य आचार्य श्री विजयराजजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती श्री पारसमुनि म.सा. ने नवकार भवन शास्त्री कॉलोनी में आयोजित धर्मसभा में कहे। आपने रविवार को यहां आयोजित धर्मसभा में कहा कि कर्मबंधन के 3 साधन है काया से, वचन ने, मन से, कर्मबंधन मानव करता है। हमें तीनों से सद्कर्म करने चाहिये तथा बुरे कर्म करने से बचना चाहिये। जिन आगमों में कर्मों के 8 प्रकार बताये है सभी प्रकार 8 प्रकार कर्म करता है। इनमें कितना शुभ व अशुभ कर्म करता है उस आत्मा की गति उसी पर निर्भर करती हैं आपने कहा कि मन चंचल है वह क्षणिक व भौतिक साधनों में सुख देखती हैं भले ही हम मन, वचन एवं काया से बुरे कर्म करे लेकिन भोगना हमारी आत्मा को ही है। मन व शरीर भौतिक साधनों विषय वासना से सुख प्राप्त करने का अनुभव करते है लेकिन इससे आत्म कल्याण नहीं होता है। आपने कहा कि सबके कर्म बंधन भिन्न होते है। इसी कारण उन्हें फल भी भिन्न भिन्न ही भोगने पड़ते है। इसी कारण दो सगे भाई जिसे माता-पिता से समान सम्पत्ति, समान शिक्षा व समान अवसर मिलते है, उसके बावजूद भी एक भाई अमीर बनकर सुख भोगता है और दूसरा भाई कंगाल या मध्यम श्रेणी का जीवन जीता है। इसलिये जीवन में श्रेष्ठ कर्म करो, बुरे कर्म करने से बचो। धर्मसभा में श्री अभिनवमुनिजी ने भी अपने विचार रखे। धर्मसभा में बड़ी संख्या मंे धर्मालुजन उपस्थित थे।