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मॉ संतान की प्रथम गुरू है माता संतान को संयमित जीवन की शिक्षा दे- पारसमुनिजी

महावीर अग्रवाल
मन्दसौर ३ जुलाई ;अभी तक;  आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के लिये गुरू का होना जरूरी है। गुरू के चरणों में समर्पित होकर जीवन को सम्यक ज्ञान, दर्शन की ओर प्रवृत्त कर सकते है। माता-पिता प्रथम गुरू है, शिक्षक द्वितीय गुरू है तथा जीवन को सद्मार्ग  पर प्रवृत्त करने वाले ज्ञानी संत तृतीय गुरू है। जीवन में तीनों प्रकार के गुरूओं का महत्व है।
                                                 उक्त उद्गार परम पूज्य आचार्य श्री विजयराजजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती शिष्य श्री पारसमुनिजी ने नवकार भवन शास्त्री कॉलोनी में आयोजित धर्मसभा में कहे। आपने सोमवार को गुरू पूर्णिमा पर्व के उपलक्ष्य में आयोजित धर्मसभा में कहा कि माता-पिता में भी माता का स्थान सर्वोत्तम है। मॉ यदि शिशु के गर्भ में आने के बाद संयमित जीवन का आचरण करे तथा पुत्र-पुत्री के जन्म के उपरांत उसे भी संयमित जीवन जीने की प्रेरणा दे तो संतान का जीवन पावन बनता है लेकिन वर्तमान में माता अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रही है यदि माता का जीवन भौतिक सुख सुविधा में लिप्त है तो वह संतान को सही व गलत का ज्ञान कैसे देगी। माता में सम्यक, ज्ञान-चरित्र व दर्शन का होना जरूरी है। जैन दर्शन में माता मदालसा का उल्लेख मिलता है। जिसने अपनी सात संतान को बाल्यावस्था से ही सम्यक ज्ञान, चरित्र की शिक्षा देकर उन्हें संयमित जीवन की ओर प्रेरित किया। यदि माता अपनी संतान को अच्छे संस्कार नहीं देगी तो संतान आगे जाकर व्यसनों एवं गलत संगति की ओर प्रवृत्त हो सकती है। इसलिये जीवन में माता-पिता अपनी जिम्मेदारी समझे और संतान को बाल्यावस्था से योग्य शिक्षा दे। धर्मसभा में बडी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं ने सहभागिता की। धर्मसभा में अभिनंदन मुनिजी व अभिनवमुनिजी ने अपने विचार रखे।

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