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14 सितंबर हिंदी *हिंदी भाषा मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने की शक्ति रखती है*
*रमेशचन्द्र चन्द्रे
मंदसौर १३ सितम्बर ;अभी तक ; महात्मा गांधी ने कहा था कि, *जिस राष्ट्र की अपनी कोई राष्ट्र भाषा नहीं होती वह राष्ट्र गूंगा होता है,* *और राष्ट्रभाषा के परिप्रेक्ष्य में भारत गूंगा है।*
हिंदी, भारत के 80% लोगों द्वारा बोली जाती है। 1917 में महात्मा गांधी ने “गुजरात शिक्षा सम्मेलन” में सभापति के रूप में कहा था कि, किसी देश की राष्ट्रभाषा, वही भाषा हो सकती है जो वहां की अधिकांश जनता बोलती है! वह सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में माध्यम भाषा बनने की शक्ति रखती हो, वह सरकारी कर्मचारियों एवं सरकारी कामकाज के लिए सुगम तथा सरल हो जिसे सुगमता और सरलता से सीखा जा सकता हो!
बहुभाषी भारत में केवल हिंदी ही एक भाषा है जिसमें ये सभी गुण पाए जाते हैं! 14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान ने हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया, किंतु राष्ट्रभाषा के रूप में नहीं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में उल्लेख है कि, “देवनागरी में लिखित हिंदी, भारतीय संघ की राजभाषा होगी” किंतु अनुच्छेद 343 (2) में यह उल्लेख किया गया है कि, संविधान लागू होने के 15 वर्षों तक हिंदी के साथ अंग्रेजी भी राजकाज की भाषा बनी रहेगी।
अतः अंग्रेजी को 1965 तक की छूट या राजआश्रय प्राप्त हो गया था! भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में अब तक 22 भाषाओं को स्थान दिया गया है और भारत में बोली जाने वाली लगभग 39 भाषाएं इस सूची में सम्मिलित होने के लिए संघर्षशील है! महत्वपूर्ण बात यह है कि इस सूची में अंग्रेजी कहीं नहीं है।
यूं तो सारे विश्व में हिंदी का डंका बज रहा है तथा हिंदी संसार की सभी संस्कृतियों के बीच में एक सेतु का काम कर रही है, फिर भी भारत में अभी भी इसके साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है। हमें इस बात पर गौर करना होगा कि, केवल साहित्य लेखन, दर्शन आदि से कोई भाषा समृद्ध नहीं हो जाती जब तक जीवन के दूसरे व्यावहारिक अनुशासन तथा समाज, राजनीति, अर्थ तंत्र, वाणिज्य ,व्यवसाय, प्रशासन ,कार्यालयीयन पद्धति, विधि, पत्रकारिता चिकित्सा, शिल्प कला, विज्ञान, रोजगार आदि क्षेत्रों में उनकी बढ़त नहीं होगी तब तक हिंदी सच्चे अर्थों में पूर्ण राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती!
*भाषाएं मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए बनी है वे मनुष्यों को जोड़ें इसी में उनकी सार्थकता और सफलता है!* वे परस्पर कलह का कारण नहीं बन जाए इसके लिए सदैव समाज और सरकार को सजग रहने की जरूरत है! फर्क, सिर्फ समझ का है कि हम इन चीजों को कैसे लेते हैं! यदि उदार दृष्टि से सोचेंगे तो हमें हिंदी और अपनी भाषा में कोई विरोध नजर नहीं आएगा।
हिंदी दिवस को हम “हिंदी दिवस” के साथ-साथ अपनी भाषा के दिवस के रूप में भी मना पाएंगे इसके लिए क्षेत्रीय भाषा के अहंकार छोड़िए और हिंदी को अपनाइए ताकि हमें भविष्य में हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता ही ना पड़े।
*मातृभाषा मां के दूध के समान होती है*
मातृभाषा के माध्यम के समक्ष और कोई माध्यम शक्तिशाली नहीं होता है। *जैसे मां के दूध के मुकाबले शिशु के लिए और कोई दूध नहीं होता है वैसे ही शिक्षा के लिए मातृभाषा के अलावा और कोई भाषा नहीं हो सकती है*।
विद्यालयों में अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण हमारे देश के कईं विद्यार्थी, अपनी शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते हैं और जो *जैसे तैसे अंग्रेजी से कुश्ती जीतने के बाद* डिग्री धारण कर लेते हैं। उसमें से अधिकांश बेरोजगारी के शिकार हो जाते हैं।
हमारे विद्यालयों से हिंदी माध्यम में निकले हुए विद्यार्थियों को यदि उचित सम्मान ,उचित रोजगार, उचित आमदनी के अवसर प्राप्त हो तो देश में अंग्रेजी भाषा के महत्व को कम करके हिंदी भाषा को सम्मानित किया जा सकता है।
अन्यथा, डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था ,कि *मेरी समझ में वे लोग बेवकूफ है जो अंग्रेजी के चलते हुए समाजवाद कायम करना चाहते हैं ,* वह भी बेवकूफ है जो समझते हैं कि अंग्रेजी के रहते हुए लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं है। ये ही थोड़े से लोग इस अंग्रेजी के जादू द्वारा देश के करोड़ों लोगों को धोखा देते रहेंगे