/रमेशचन्द्र चन्द्रे/
मंदसौर एक मई ;अभी तक ; आद्य शंकराचार्य का जन्म ईसा पूर्व 508 वर्ष अर्थात 2529 वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन केरल के कालडी नामक गांव में नंबूदरीपाद ब्राह्मण के एक साधारण परिवार में हुआ था किंतु पारिवारिक संस्कारों के कारण उनका मन सदैव भगवान शिव में लगा रहता था और वह घंटों ध्यानस्थ होकर सिर्फ यह सोचते कि विश्व का कल्याण कैसे होगा और उनके मन एक दिन अंदर से यह आवाज कि- ‘‘जीतम् जगत केन?‘‘ उत्तर था ‘‘मनो हि येन’’ अर्थात जिसने इस मन को जीत लिया समझो उसने इस जगत को जीत लिया और उस दिशा में चलते हुए उन्होंने सन्यास जीवन ग्रहण किया।
एक दुर्बल मनुष्य सिंहो, हाथियों और अन्य भयानक हिंसक जानवरों को अपने नियंत्रण में कर सकता है किंतु उसे अपने मन को नियंत्रित करना अत्यंत ही कठिन होता है परंतु यह कुशलता हमारे साधु सन्यासियों में अधिकांशत दिखाई देती है और यह कुशलता उनकी ईश्वर के प्रति निष्ठा तथा तपस्या से प्राप्त होती है।
शंकराचार्य जी ने मात्र 8 वर्ष गुरुकुल में बिताए और वहां उन्होंने वेदांत का अध्ययन संपन्न कर लिया उनकी बुद्धि और चिंतन से यह सिद्ध होने लगा कि बालक शंकर, हिंदू धर्म के उत्थान के हेतु ईश्वरीय इच्छा को पूर्ण करने के लिए इस पृथ्वी पर आया है।
सन्यासी जीवन के दौरान वे भारत के अनेक क्षेत्रों में यात्रा करते रहे और उन्होंने देखा कि समाज गरीबी, अमीरी, वर्ण भेद जातिवाद और क्षेत्रवाद के कारण ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि को भी चुनौती दे रहा है जबकि भारत एक पवित्र धर्म भूमि है और इसलिए इसकी पवित्रता बनाए रखने के लिए कन्याकुमारी से कश्मीर तक एवं पूर्व से पश्चिम तक भारत की एकता को धर्म के आधार पर सुदृढ़ करना होगा और उन्होंने हिंदू धर्म की सभी जातियों को इकट्ठा कर एक ‘‘दशनामी संप्रदाय’’ बनाया उनके 4 प्रमुख शिष्य जिनके नाम पद्मपाद, सुरेश्वर हस्तमालक ,और त्रोटक थे जिन्होंने शंकराचार्य जी के मार्गदर्शन में इस संप्रदाय का नेतृत्व किया।
आद्य शंकराचार्य ने भारत को उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम तक जोड़ने के लिए चारों धाम पर मठ स्थापित किए और चार शंकराचार्य की पीठों का निर्माण किया जिसमें वेदांत ज्ञान श्रृंगेरी मठ, रामेश्वरम (दक्षिण भारत), गोवर्धन मठ जगन्नाथ पुरी (पूर्वी भारत), शारदा मठ द्वारका (पश्चिम भारत) और ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत) है। और इतना ही नहीं उन्होंने तमिलनाडु के कांचीपुरम में कांचीकाम कोटि पीठ की स्थापना भी की। इसके साथ ही संपूर्ण भारत वर्ष में अलग-अलग विधाओं के ज्ञान के लिए खंड अथवा उपपीठ की भी स्थापना की गई । इसी तारतम्य में मंदसौर जिले में भानपुरा पीठ ज्योतिष पीठ के नाम से जानी जाती है।
भारत की सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं को एकात्मता के सूत्र में बांधने के लिए उन्होंने एक अनूठी योजना बनाई जिसमें एक दूसरे के क्षेत्र की सामाजिक परंपराओं के आदान प्रदान हेतु उत्तर भारत के बद्रीनाथ धाम में दक्षिण का पुजारी और दक्षिण भारत के मंदिर में उत्तर भारत का पुजारी और इसी प्रकार पूर्वी भारत में पश्चिम का और पश्चिम का पूर्वी भारत में पुजारी हो यह व्यवस्था की थी। इससे यह प्रतीत होता है कि ढाई हजार साल पूर्व ही शंकराचार्य जी के मन में भारत को एक सूत्र में बांधने के लिए जातिवाद वर्ण भेद और क्षेत्रवाद को समाप्त करने की अवधारणा बहुत स्पष्ट थी।
उन्होंने अद्वैत वेदांत का दर्शन प्रतिपादित किया और जनसाधारण के लिए अनेक भाष्य लिखें और संपूर्ण भारत के विद्वानों से विश्वकल्याण को लेकर अनेक ज्ञान चर्चाएं आयोजित की। जिसके कारण शंकराचार्य जी का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उनके द्वारा स्थापित चारों मठों के शंकराचार्य हिंदू धर्म के सर्वोच्च गुरु माने जाते हैं।
उन्होंने ‘‘ब्रह्म ही सत्य और जगत मिथ्या’’ इस वाक्य को सिद्ध करते हुए अपनी माता के प्रति दायित्व का निर्वहन भी किया क्योंकि माता की बीमारी का समाचार सुनकर वे अपना पुत्र धर्म निभाने के लिए अपने गांव कालडी आ गए जहां उन्होंने माता की मृत्यु के पश्चात उनका दाह संस्कार और श्राद्ध भी किया।
शंकराचार्य जी के विराट व्यक्तित्व और कृतित्व को इतने कम शब्दों में बांधना या प्रस्तुत करना बहुत कठिन है पर आज उनकी जयंती के उपलक्ष में उनकी स्मृति हेतु कुछ शब्द सुमन समर्पित कर रहे।
मात्र 32 वर्ष की उम्र में वे ब्रह्मलीन हो गए किंतु अपने जीवन काल में , सन्यास जीवन एवं राष्ट्र की चिंता और परिवार के साथ समन्वय तथा साधु परंपराओं को जीवित रखने के लिए जो कुछ आद्य शंकराचार्य जी ने किया है उससे भारत सहित संपूर्ण विश्व उनका जन्म जन्मांतर तक ऋणी रहेगा।
एक दुर्बल मनुष्य सिंहो, हाथियों और अन्य भयानक हिंसक जानवरों को अपने नियंत्रण में कर सकता है किंतु उसे अपने मन को नियंत्रित करना अत्यंत ही कठिन होता है परंतु यह कुशलता हमारे साधु सन्यासियों में अधिकांशत दिखाई देती है और यह कुशलता उनकी ईश्वर के प्रति निष्ठा तथा तपस्या से प्राप्त होती है।
शंकराचार्य जी ने मात्र 8 वर्ष गुरुकुल में बिताए और वहां उन्होंने वेदांत का अध्ययन संपन्न कर लिया उनकी बुद्धि और चिंतन से यह सिद्ध होने लगा कि बालक शंकर, हिंदू धर्म के उत्थान के हेतु ईश्वरीय इच्छा को पूर्ण करने के लिए इस पृथ्वी पर आया है।
सन्यासी जीवन के दौरान वे भारत के अनेक क्षेत्रों में यात्रा करते रहे और उन्होंने देखा कि समाज गरीबी, अमीरी, वर्ण भेद जातिवाद और क्षेत्रवाद के कारण ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि को भी चुनौती दे रहा है जबकि भारत एक पवित्र धर्म भूमि है और इसलिए इसकी पवित्रता बनाए रखने के लिए कन्याकुमारी से कश्मीर तक एवं पूर्व से पश्चिम तक भारत की एकता को धर्म के आधार पर सुदृढ़ करना होगा और उन्होंने हिंदू धर्म की सभी जातियों को इकट्ठा कर एक ‘‘दशनामी संप्रदाय’’ बनाया उनके 4 प्रमुख शिष्य जिनके नाम पद्मपाद, सुरेश्वर हस्तमालक ,और त्रोटक थे जिन्होंने शंकराचार्य जी के मार्गदर्शन में इस संप्रदाय का नेतृत्व किया।
आद्य शंकराचार्य ने भारत को उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम तक जोड़ने के लिए चारों धाम पर मठ स्थापित किए और चार शंकराचार्य की पीठों का निर्माण किया जिसमें वेदांत ज्ञान श्रृंगेरी मठ, रामेश्वरम (दक्षिण भारत), गोवर्धन मठ जगन्नाथ पुरी (पूर्वी भारत), शारदा मठ द्वारका (पश्चिम भारत) और ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत) है। और इतना ही नहीं उन्होंने तमिलनाडु के कांचीपुरम में कांचीकाम कोटि पीठ की स्थापना भी की। इसके साथ ही संपूर्ण भारत वर्ष में अलग-अलग विधाओं के ज्ञान के लिए खंड अथवा उपपीठ की भी स्थापना की गई । इसी तारतम्य में मंदसौर जिले में भानपुरा पीठ ज्योतिष पीठ के नाम से जानी जाती है।
भारत की सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं को एकात्मता के सूत्र में बांधने के लिए उन्होंने एक अनूठी योजना बनाई जिसमें एक दूसरे के क्षेत्र की सामाजिक परंपराओं के आदान प्रदान हेतु उत्तर भारत के बद्रीनाथ धाम में दक्षिण का पुजारी और दक्षिण भारत के मंदिर में उत्तर भारत का पुजारी और इसी प्रकार पूर्वी भारत में पश्चिम का और पश्चिम का पूर्वी भारत में पुजारी हो यह व्यवस्था की थी। इससे यह प्रतीत होता है कि ढाई हजार साल पूर्व ही शंकराचार्य जी के मन में भारत को एक सूत्र में बांधने के लिए जातिवाद वर्ण भेद और क्षेत्रवाद को समाप्त करने की अवधारणा बहुत स्पष्ट थी।
उन्होंने अद्वैत वेदांत का दर्शन प्रतिपादित किया और जनसाधारण के लिए अनेक भाष्य लिखें और संपूर्ण भारत के विद्वानों से विश्वकल्याण को लेकर अनेक ज्ञान चर्चाएं आयोजित की। जिसके कारण शंकराचार्य जी का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उनके द्वारा स्थापित चारों मठों के शंकराचार्य हिंदू धर्म के सर्वोच्च गुरु माने जाते हैं।
उन्होंने ‘‘ब्रह्म ही सत्य और जगत मिथ्या’’ इस वाक्य को सिद्ध करते हुए अपनी माता के प्रति दायित्व का निर्वहन भी किया क्योंकि माता की बीमारी का समाचार सुनकर वे अपना पुत्र धर्म निभाने के लिए अपने गांव कालडी आ गए जहां उन्होंने माता की मृत्यु के पश्चात उनका दाह संस्कार और श्राद्ध भी किया।
शंकराचार्य जी के विराट व्यक्तित्व और कृतित्व को इतने कम शब्दों में बांधना या प्रस्तुत करना बहुत कठिन है पर आज उनकी जयंती के उपलक्ष में उनकी स्मृति हेतु कुछ शब्द सुमन समर्पित कर रहे।
मात्र 32 वर्ष की उम्र में वे ब्रह्मलीन हो गए किंतु अपने जीवन काल में , सन्यास जीवन एवं राष्ट्र की चिंता और परिवार के साथ समन्वय तथा साधु परंपराओं को जीवित रखने के लिए जो कुछ आद्य शंकराचार्य जी ने किया है उससे भारत सहित संपूर्ण विश्व उनका जन्म जन्मांतर तक ऋणी रहेगा।