डॉ. रवीन्द्र कुमार सोहोनी
मंदसौर १३ अप्रैल ;अभी तक ; भारतरत्न डॉ. भीमराव आम्बेडकर, जो स्नेह से पूरे भारत वर्ष में बाबा साहेब कहे जाते हैं, निःसंदेह भारत के सर्वाधिक यशस्वी सपूतों में से एक है। भारत के सामाजिक-राजनीतिक पटल पर वे एक जाज्वल्यमान नक्षत्र की भाँति 1920 के दशक के प्रारंभ में प्रकट हुए। वर्ष 1947 से वर्ष 1956 में मृत्यु पर्यन्त वे आधुनिक भारत की नींव रखने वाले शिल्पियों में अग्रगण्य है। आधुनिक भारतवर्ष के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कायाकल्प में उनकी भूमिका निर्वचन से नितान्त परे है। वास्तव में देखा जाए तो डॉ. भीमराव आम्बेडकर का जीवन एक ऐसा अविश्वसनीय व्याख्यान है, जिसकी दूसरी कोई मिसाल हमें देखने को नहीं मिलता है।
डॉ. साहब ने 25 नवम्बर, 1949 को भारत की संविधान सभा की आखिरी बैठक में एक ऐतिहासिक भाषण दिया था। संविधान लेखन का कार्य सम्पन्न हो चुका था और अगले ही दिन 26 नवम्बर को भारत की महान जनता की ओर से उसे अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया जाना था। इसके पहले आम्बेडकर जी ने दो विशेष प्रवृत्तियों के प्रति सभी को आगाह कर देना आवश्यक समझा था। इस भाषण में आपने कहा था कि धर्म में भले ही भक्ति मोक्ष का मार्ग हो, लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक पूजा निश्चित रूप से पतन का मार्ग है, जो अन्ततः तानाशाही की तरफ ले जाता है। आपकी दूसरी गंभीर टिप्पणी थी- जहाँ संवैधानिक तरीके खुले हो, वहाँ असंवैधानिक तरीकों का कोई तर्क नहीं हो सकता। ये तरीके और कुछ नहीं, बल्कि अराजकता का व्याकरण है, जिन्हें जितने जल्दी छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा।
जो लोग डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर के सम्मान की रक्षा करने का दावा करते हैं, क्या उन सहित इन दोनों टिप्पणियों पर सभी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने कभी गंभीरता से विचार किया है ? बाबा साहेब द्वारा संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में की गई दोनों टिप्पणियां पूरे राष्ट्र और हर समय के लिए अत्यन्त प्रासंगिक हैं। डॉ. भीमराव आम्बेडकर संविधान के निर्माता ही नहीं, अपितु समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित राष्ट्रवाद के प्रणेता भी हैं। वे संकल्प का दूसरा रूप तो थे ही, लेकिन हठधर्मिता से कोसों दूर थे। एक विधि मंत्री के रूप में उन्होंने सभी धर्म प्रमुखों को शासकीय व्यय पर बुलाकर धर्म ग्रंथों की वे धारणाएं बतलायी जो प्रगतिशील भारत की प्रगतिशील सोच के लिये घातक थीं। डॉ. भीमराव आम्बेडकर का विचार ईमानदारी का दूसरा पर्याय है। उन्होंने गलत को गलत और सही को सही कहा, उसका चाहे जो भी परिणाम हो। जाति विहीन समाज की बात हो, नारी मुक्ति कि बात हो, देश की सीमा रक्षा या अंधविश्वास उन्होंने कहीं भी रंचमात्र समझौता नहीं किया। 1950 के दशक में बेटियों को पैतृक सम्पत्ति में अधिकार देने की बात करना इतना आसान नहीं था। इसी तरह काश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने के शेख अब्दुला के आग्रह को उन्होंने सिरे से खारिज़ कर दिया था तथा शेख अब्दुला को फटकार लगाते हुए कहा था कि यदि जम्मू कश्मीर सीमा प्रदेश है तो राजस्थान, पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार और पूर्वोत्तर राज्य भी सीमा से लगे हैं तो उनके लिये ऐसे प्रावधान क्यों नहीं किए जाए।
एक जननायक और राजनेता होने के उपरान्त भी वे एक गंभीर चिंतक एवं विद्वान थे। जीवन में उन्होंने अर्थशास्त्री, समाज विज्ञानी, मानव विज्ञानी, शिक्षाविद्, पत्रकार, नीति निर्माता, प्रशासक, तुलनात्मक धर्म के विद्वान चिंतक और न्यायाविद् के रूप में भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता की एक अतिशय श्रेष्ठ भूमिका का निर्वहन किया। इसमें तनिक भी आश्यर्च नहीं है कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान राष्ट्र के इतिहास में जितने भी नायक हुए हैं उनमें महात्मा गांधी के पश्चात् सबसे अधिक मूर्तियाँ डॉ. आम्बेडकर की ही लगी है। इन मूर्तियों में वे सूट, टाई पहने हाथ में एक पुस्तक लिए, जो निश्चित ही भारतीय संविधान है, दिखाए जाते हैं। शिकागो विश्वविद्यालय के प्रो. टॉम्स गिन्सबर्ग ने फ्रांस की क्रांति 1789 के पश्चात् जन्म लेने वाले लगभग 190 से अधिक संविधानों का सूक्ष्मता से अध्ययन करने के पश्चात् एक निष्कर्ष यह प्रस्तुत किया था कि किसी भी संविधान की औसत आयु केवल 17 वर्ष है, लेकिन हमारी संविधान सभा और डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा निर्मित यह दुनिया का सबसे बड़ा संविधान साढ़े सात दशकों की यशस्वी यात्रा के बाद भी अक्षुण्ण बना हुआ है। 12 दिसम्बर, 1935 को जात-पात तोड़क मंडल ने लाहौर में एक अधिवेशन किया था तथा आम्बेडकर को अध्यक्ष के रूप में आमंत्रित भी किया था तथा उनसे आग्रह किया था कि वे अपने व्याख्यान (निबन्ध) ‘‘जाति-भेद का बीज नाश’’ में कतिपय संशोधन कर लें, किन्तु डॉ. साहब ने ऐसा करने से स्पष्ट न केवल मना कर दिया अपितु उसे लाहौर के स्थान पर मुम्बई में ही प्रकाशित करवा दिया।
यह अत्यन्त ही विचित्र विडम्बना का विषय है कि अब तो उन्हें मानने वाली जातियां भी राजनीतिक, आर्थिक लाभ लेने के लिए जाति की पहचान को और अधिक मजबूत बनाने के प्रयास में लगी हुई हैं। मौजूदा समय में हम देख रहे हैं कि संसदीय लोकतंत्र के सामने कई खतरे मुँह बाएं खड़े है उन्हें डॉ. आम्बेडकर ने साढ़े छः दशक पूर्व ही देख लिया था। आम्बेडकर की इस दूरदृष्टि में प्रखर राष्ट्रवाद तो दिखाई देता ही है बल्कि संसद की पवित्रता कायम रखने की चिंता और उसके लिये उपाय सुझाने की तत्परता भी नज़र आती है। उनकी यह दृढ़ मान्यता थी की राज करने वालों को प्रशिक्षण देना जरूरी है। इसके लिये उन्होंने मुम्बई के सिद्धार्थ महाविद्यालय में प्रशिक्षण केन्द्र भी स्थापित किया था।
राष्ट्रवाद की आम्बेडकर की अवधारणा के मुताबिक यह एकता की भावना है। इसलिये हम सब एक दूसरे के भाई और रिश्तेदार हैं। इसमें लोगों के बीच का संवाद, समान भागीदारी और जीवन के विभिन्न पहलुओं में योगदान शामिल है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालात करते हुए आप कहते है कि ‘राष्ट्र यानी लोगों को बन्धुता में बांधने वाला आध्यात्मिक अस्तित्व।’
हम सबको यह बात याद रखना चाहिए कि यदि नाराजगी संवैधानिक दायरे से बाहर निकलकर अराजकता के व्याकरण को बढ़ावा देने लगे, तो उससे अन्ततः उसी संविधान की व्यवस्था को नुकसान होगा जिसे निर्मित करने में डॉ. आम्बेडकर ने अद्वितीय और अप्रतिम योगदान दिया है। प्रखर राष्ट्रवादी महानायक डॉ. आम्बेडकर को उनकी 134वीं जन्म जयंती के अवसर पर भावपूर्ण आदरांजली के साथ नमन्।