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    स्वामी हरिदासराम महाराज त्याग, तपस्या की प्रतिमूर्ति थे संत जगत में आते है, लोक जगत के कल्याण के लिये- संत शंभूलाल

    महावीर अग्रवाल 

    मन्दसौर ९ मई ;अभी तक ;   श्री प्रेमप्रकाश पंथ की चौथी (चतुर्थ) पातशाही मर्या मूर्ति सद्गुरू स्वामी हरिदासराम महाराज के 96वें जन्मोत्सव के पावन अवसर पर श्री प्रेम प्रकाश आश्रम में 8 मई गुरुवार को मोहिनी एकादशी के दिवस संत श्री शम्भूलालजी प्रेम प्रकाशी ने पंच दिवसीय श्रीमद् भागवत गीता एवं श्री प्रेम प्रकाश ग्रंथ के पाठों की स्थापना प्रेम प्रकाश पंथ सनातन धर्म की परम्परा के अनुसार नवगृहों व तुलसीमाता की पूजा अर्चना के साथ की। इन पंच दिवसीय पाठों का भोग (समापन) स्वामी हरिदास महाराज के जन्मदिवस 12 मई, सोमवार, बुद्ध पूर्णिमा के दिन सम्पन्न होगा।
    इस आशय की जानकारी श्री प्रेम प्रकाश सेवा मण्डली के अध्यक्ष पुरुषोत्तम शिवानी ने देते हुए बतलाया कि इस पावन अवसर पर संत श्री शंभूलाल ने अपने मुखारविंद से सत्संग सभा में उपस्थित संगत पर अपनी अमृतमयी वर्खा करते हुए कहा कि सद्गुरू स्वामी हरिदासजी महाराज का अवतार 1930 में अविभाजित हिंदुस्तान के सिन्ध में माता मोतीबाई पिता हीरानन्द कि यहां हुआ था। वे प्रारंभ से ही त्याग, तपस्या व वैराग्य व सादगी जीवन के पुजारी थे।
    आपने अपने भजन के माध्यम से स्वामीजी के जीवन पर प्रकाश डाला और कहा कि स्वामीजी त्याग, तपस्या व सादगी की प्रतिमूर्ति थे।
    आपने संगत को सत्संग के पूर्व स-किर्तन की महिमा को समझाते हुए कहा कि सत्संग  के पूर्व स-कीर्तन में सत्संगी को अपने मुख से भगवान का नाम स्मरण करना चाहिए उससे आपके पाप कर्मों का नाश होगा। हमारे प्रेम प्रकाश पंथ की भी यही परम्परा है और आज तो मोहिनी एकादशी व्रत है, आज के दिन आपको स्वामी हरिदासजी महाराज के जन्मोत्सव के कारण स-कीर्तन का अवसर प्राप्त हुआ है जो कि श्रेष्ठ है। सत्संग का सारांश ही संकीर्तन है।
    मोहिनी एकादशी व्रत महात्म्य को समझाते हुए कहा कि प्राणी को सदैव संतों का संग करना चाहिए। संतों की संगत से मनुष्य को न केवल सद्बुद्धि प्राप्त होती है। अपितु उसके जीवन का उद्धार हो जाता है। एकादशी के दिन प्राणी को फलहार के साथ-साथ रात्रि में भगवान की आराधना से अत्यधिक फल की प्राप्ति होती है।
    ‘‘जल अपना नहीं सरवर पीते-वृक्ष कभी न फल खाते
    तैसे जग कल्याण करनहित-संत जगत में है आते जल अपना नहीं . . .  ’’
    अर्थात जिस प्रकार सरवर अपना जल नहीं पीते, वृक्ष फल देते है, किन्तु कभी खाते नहीं उसी प्रकार संत महात्मा भी जनकल्याण के लिये अवतार लेते है। इंसान को अपने जीवन में आशावान होना चाहिए। यह उचित है किन्तु तृष्णा याने इच्छा,लालच नहीं रखना चाहिए। तृष्णा कभी पूर्ण नहीं होती।  क्योंकि तृष्णा लोक जगत के दिखलावे के लिये की जाती है।
    प्रारंभ में संत श्री ने स्वामी हरिदासराम महाराज के चित्र पर माल्यार्पण कर दीप प्रज्वलित किया। अंत में केक प्रसाद व हर्षोल्लास के साथ ‘‘पल्लव’’ पाकर समाप्ति उपरांत आभार प्रदर्शन महिला मण्डली प्रमुख पुष्पा पमनानी एवं दयाराम जैसवानी ने प्रकट किया।

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