प्रदेश

4 दिसंबर बलिदान दिवस ; स्वातंत्र्य योद्धा जननायक टंट्या भील की जीवन गाथा – रमेशचन्द्र चन्द्रे 

रमेशचन्द्र चन्द्रे
           अंग्रेजी राज में उस समय की पुलिस और महाराजा तुकोजीराव होलकर (द्वितीय) के सेना अधिकारियों ने टंट्या भील के बारे में सिर्फ यह प्रचारित किया कि वह ब्रिटिश सरकार के खजाने लूटता है तथा अपनी निजी आवश्यकता की पूर्ति के लिए डाके डालता है किंतु टंट्या भील का उद्देश्य इस प्रकार की लूट और डाकों के पीछे राष्ट्र की स्वतंत्रता  तथा दुखी दरिद्री एवं वंचितों के सहयोग के लिए एक आंदोलन था! यह सच है कि ब्रिटिश सरकार के खजाने और अंग्रेजों के पिट्टू व्यापारियों, जमींदारों के धन संपत्ति को लूट कर वह सारी धन-संपत्ति गरीब भारतीयों को बांट दिया करता था !वह वास्तव में वंचित समुदाय का मसीहा या भगवान था इसीलिए सभी आयु वर्ग के लोगों के द्वारा उसे प्यार और श्रद्धा से “टंट्या मामा” कहा जाता था और यह संबोधन आज भी भील तथा अन्य वनवासी जातियों में इतना लोकप्रिय है कि उन्हें अगर मामा कहा जाए तो वह अपने आपको सम्मानित महसूस करते हैं
        टंट्या भील का जन्म 1840 में तत्कालीन मध्य भारत प्रांत के पूर्वी निमाड़ क्षेत्र के वर्तमान खंडवा जिले के अंतर्गत पंधाना के निकट “बड़ौदा अहीर” नामक गांव में हुआ था! वह बचपन से ही  साहसी’,  बुद्धिमान तथा चीते की तरह तेजतर्रार था एवं अपने गांव तथा आसपास के गांव के लोगों के दुख दर्द लिए एक अनन्य सहयोगी युवक था!
         अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वतंत्रता युद्ध में जब भारत के गांव- गांव, शहर- शहर में रोटी और कमल अभियान चलाया गया उस समय भारत की अनेक वनवासी जातियां भी इस स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन में सशस्त्र खड़ी हो गई थी और उसी युद्ध में  मात्र 17 वर्ष की आयु में टंट्या भील ने खंडवा, खरगोन एवं वर्तमान बड़वानी जिले के आदिवासियों का एक समूह बनाकर उनका नेतृत्व किया और तब ही से वह अंग्रेजों के निशाने पर आ गया किंतु ब्रिटिश पुलिस एवं इंदौर के होल्कर  राज्य के अनेक प्रयासों के बाद भी वह गिरफ्तार नहीं हुआ! क्योंकि उसका मानना था कि अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए उसे बाहर रहकर भूमिगत होना पड़ेगा और स्वतंत्रता संग्राम को गति प्रदान करनी पड़ेगी इसी श्रृंखला में वह भूमिगत हो गया! अंततः अंग्रेजी सरकार ने उसकी गतिविधियों के कारण उसे डाकू घोषित कर दिया!
         टंट्या मामा के लिए स्वतंत्रता युद्ध का अर्थ यह था कि अंग्रेजों ने इस देश को गुलाम बना के रखा है और इसके कारण भारत के देशभक्त लोग गरीब होते जा रहे हैं और अंग्रेजों के चाटुकार अमीर होते जा रहे हैं इसलिए गरीबों का जीवन स्तर उठाने के लिए वह अंग्रेजी सरकार के खजानो को लूट कर गरीबों में बांट दिया करता था तथा आवश्यक होने पर अंग्रेजों की हत्या भी कर दिया करता था इस कारण से अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ी हुई थी और इसकी गूंज इंग्लैंड तक पहुंच गई थी इसलिए उसे पकड़ने के हेतु  इनाम की घोषणा भी की गई किंतु टंट्या मामा गुरिल्ला युद्ध में निपुण था वह तीर कमान सहित बंदूक चलाना भी सीख गया था उसे अपनी छोटी उम्र में ही घने जंगलों और पहाड़ों में अंग्रेजी पुलिस तथा होलकर राज्य कि सेनाओं के साथ मुकाबला करना पड़ा था
         टंट्या मामा को गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेज पुलिस ने पूछताछ हेतु उनके गांव के आसपास लोगों पर बहुत अत्याचार किया किंतु पुलिस नाकाम रही पर एक विश्वासघाती के कारण उन्हें 1874 में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया 1 वर्ष की सजा के बाद उन्हें रिहा किया गया उसके बाद  टंट्या मामा स्वतंत्रता युद्ध के लिए गांव गांव जाकर अंग्रेजो के खिलाफ अलख जगाते रहे इसी दौरान 1878 में उन्हें पुनः गिरफ्तार कर खंडवा की जेल में डाल दिया गया कुछ वर्ष जेल में रहने के बाद वह रिहा कर दिए गए इसके बाद लगातार वह मालवा निमाड़ सहित धार, झाबुआ, अलीराजपुर, जोबट ,राणापुर ,अमझेरा मनावर इत्यादि क्षेत्रों की वनवासी जातियों में स्वतंत्रता संग्राम हेतु जन जागरण का काम करते हुए उन्होंने एक सशस्त्र सेना की टुकड़ी भी तैयार कर ली थी ब्रिटिश सैनिकों तथा होलकर सेनाओं से से उनकी अनेकों मुठभेड़ होती रही किंतु फिर एक बार एक निकटतम रिश्तेदार की धोखेबाजी के कारण वह गिरफ्तार कर लिए गए तथा उन्हें ब्रिटिश रेजीडेंसी इंदौर क्षेत्र की केंद्रीय जेल में रखा गया और उन पर अनेक प्रकार के अत्याचार भी किए गए किंतु वह झुके नहीं इसी बीच न्यायालयीन कार्रवाई हेतु उन्हें हथकड़ी बेडी डालकर भारी सुरक्षा के साथ जबलपुर ले जाया गया जहां पर वहां के सत्र *न्यायालय द्वारा 19 अक्टूबर 1889 उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई जिसकी खबर 10 नवंबर 1819 को न्यूयॉर्क टाइम्स ने प्रमुखता से प्रकाशित की थी इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है की टंट्या* *मामा कोई सामान्य डाकू नहीं होकर एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे*
        4 दिसंबर 1889 को गोपनीय रूप से उन्हें फांसी दे दी गई किंतु उनकी फांसी का समाचार सुनकर कहीं बनवासी भील जातियों की ओर से विद्रोह ना हो जाए इस डर के कारण इसकी खबर उनके रिश्तेदारों तथा उनके चाहने वालों को सरकार द्वारा नहीं दी गई और ब्रिटिश पुलिस ने उनके शव को इंदौर खंडवा रेल लाइन पर महू के आगे पातालपानी के जंगली क्षेत्र में फेंक दिया ! जहां उनके अनुयायियों ने उनकी स्मृति में एक समाधि बना दी
     आज भी पातालपानी रेलवे लाइन के निकट टंट्या मामा की समाधि स्थित है
      *टंट्या मामा की वीरता तथा युद्ध प्रणाली को देखते हुए ब्रिटिश सरकार  उन्हें इंडियन रॉबिन हुड कह कर संबोधित करती थी!*
        भारत की स्वतंत्रता के बाद अनेक सरकारें आई गई किंतु इन वनवासी क्षेत्र के अनेक नेताओं के स्वतंत्रता संग्राम की गाथाओं को जनता के बीच महिमा मंडित करने के प्रयास नहीं किए गए किंतु अब इस सरकार द्वारा वनवासी स्वतंत्र वीर क्रांतिसूर्य जननायक नेता टंट्या भील की जन्मस्थली पर उनकी एक आदम कद मूर्ति की स्थापना भी की गई तथा इसी स्थान से जननायक टंट्या भील गौरव यात्रा का प्रारंभ भी किया गया है तथा इंदौर के आईएसबीटी बस स्टैंड का नाम टंट्या भील के नाम से रखते हुए पातालपानी रेलवे स्टेशन का नाम भी टंट्या भील के नाम से रखने के सरकार द्वारा प्रस्ताव कर दिए गए हैं तथा पाठ्य पुस्तक में भी इनकी गाथा को सम्मिलित किया जाएगा आज इनके बलिदान दिवस पर हम सब श्रद्धा पूर्वक सादर नमन करते है

Related Articles

Back to top button