बुंदेलखंड की डायरी ; बुंदेलखंड के एरच से त्रेता युग में शुरू हुई थी होली की परम्परा
रवीन्द्र व्यास
बुंदेलखंड का एरच ही वह स्थान है जहाँ से होली की परंपरा शुरू हुई थी | जहां त्रेता युग में असुर राज हिरण्यकश्यप ने अपने ही भगवान् विष्णु भक्त पुत्र प्रहलाद को जिन्दा जलाने का आदेश दिया था | इस कार्य को करने की जिम्मेदारी उन्होंने अपनी बहन होलिका को सौंपी थी , जिसे ब्रम्हा जी से वरदान मिला था कि आग उसे जला नहीं सकेगी | जब वह अपने ही भांजे प्रह्लाद को लेकर आग में बैठी तो ,वह तो आग में भस्म हो गई और प्रहलाद को नया जीवन मिला था |
बुंदेलखंड के एरच से शुरू हुई थी होली
होलिका दहन की शुरुआत बुंदेलखंड के झाँसी जिले के एरच से हुई थी | एरच में दैत्यराज हिरण्यकश्यप का राज था , उनका पुत्र था प्रहलाद जो भगवान विष्णु का भक्त था | विष्णु पुराण की कथा के अनुसार देवताओं से वरदान प्राप्त कर हिरण्यकश्यप निरंकुश हो गया था उसने राज्य में ये आदेश दिया था कि कोई भी उनके राज में विष्णु भगवान् की पूजा नहीं करेगा | जबकि उनका बड़ा पुत्र प्रह्लाद विष्णु भक्त था , पुत्र की इस भक्ति को देख वह इतना क्रोधित हुआ की उसने उसे मारने के तमाम तरह के प्रयत्न किये | जब वह इसमें सफल नहीं हो पाया तो उसने अपनी बहन होलिका को ( जिसे में आग से ना जलने का वरदान प्राप्त था ) आदेश दिया की प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठे | इसके लिए डिकौली पर्वत के निकट अग्नि जलाई गई , अग्नि में जब होलिका अपने ही प्रह्लाद को लेकर बैठी तो वह तो जल कर भष्म हो गई पर प्रह्लाद सुरक्षित बाहर आ गए | ब्रम्हा जी के वरदान से होलिका को ऐसी चुनरी मिली थी जिसे ओढ़ने के बाद वह अग्नि में नहीं जलती थी, किन्तु वह चुनरी तेज हवा के झोंके में उससे अलग हो गई थी | इस घटना के बाद भगवान् विष्णु ने नरसिँह अवतार लेकर गोधूलि बेला पर हिरण्यकश्यप का वध कर उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई | इस तरह यहाँ से शुरू हुई होलिका दहन और रंगों के त्यौहार होली की परम्परा |
इस इलाके में मिलते पाषाण अवशेष हिरण्यकश्यप के महल के बताए जाते हैं। यहां हुई खुदाई में हिरण्यकश्यप काल की शिलाएँ और होलिका की गोद में बैठे प्रहलाद की मूर्तियाँ भी मिली हैं,| उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने तो 2021 में होली एरच महोत्सव भी शुरू किया है | पांच दिवसीय इस महोत्सव में बुंदेली लोक संस्कृति से जुड़े अनेक कार्यक्रम होते हैं |
बुंदेलखंड में होली की परम्परा :
जब मौसम में मादकता हो, पलास फूला, हो आम बोराया हो और खेत पर गदराई फसल खडी हो तब किसका मन मस्ती में नहीं डूबेगा | बुंदेलखंड के एरच से ही होली की परंपरा शुरू हुई थी, जहां होलिका आग में भस्म हुई थी और प्रहलाद को नया जीवन मिला था | कालान्तर में होली के कई और अनूठे रंग बुंदेलखंड में देखने को मिलते हैं | बुंदेलखंड की लोक परम्परा में फाग का अपना महत्व रहा है | कभी यह परम्परा बसंतोत्सव से शुरू हो जाती थी | बसंत के आगमन के साथ गाँव -गाँव में फाग के स्वर सुनाई देने लगते थे जो रंग पंचमी तक चलते रहते थे | अब ये सिर्फ होलिका दहन के आस पास तक सीमित होकर रह गए हें | शुद्ध शास्त्रीय शैली की फागों का स्थान अब अश्लील फागों और फागों की सी.डी.ने ले लिया है | इस अंचल में बसंत पंचमी के साथ ही मस्ती का आलम शुरू हो जाता था, मस्ती के रस में सराबोर गाँव -गाँव में फागों की फड बाजी होती थी | जबाबी फागों की यह शैली अरसे से समाप्त हो चुकी है |
वैसे तो बुंदेलखंड में होली के अनेक रंग देखने को मिलते हैं , पर इनमें सबसे प्रमुख फाग गायन की परम्परा मानी जाती है ,
गाँव की चौपालों पर नगड़िया -ढोलक , झींका, मजीरा, की लय पर फाग की तान अब कम सुनाई पड़ती है | बुन्देली लोक जीवन से जुडी फागों का अपना एक सम्रद्ध इतिहास है | फाग की वर्तमान परम्परा ईसुरी और गंगा धर व्यास की फागों तक सिमित सिमित हो कर रह गई हें | गाँव -गाँव में मूलतः ईसुरी रचित फागें ही गई जाती हें |ठेट- बुन्देली समरसता वा माधुर्य के साथ ईसुरी की फागों में श्रृंगार वा भावों की अभिव्यक्ति का अनूठा सम्मिश्रण देखने को मिलता है | ईसुरी रचित फागों को चोकडिया फाग भी कहते हें, फागों को गाने वाले फगुवारे लक्ष्मण सिंह इस उत्सव में अपनी उम्र को बाधक नहीं मानते | वे कहते हें की फागों की मस्ती का आलम ही कुछ और होता है ,हम तो वेसा ही आनंद लेते हें जैसा जिन्दगी भर होली के माह में लेते रहे हें | काल की गति के साथ अब सब कुछ बदल गया है ,अब वैसा उत्साह और उल्लास लोगों में नहीं रहा |
बुंदेलखंड में डेढ़ सौ वर्ष पूर्व ईसुरी रचित फागों की श्रंगारित ने इसे लोक जीवन की फागें बना दिया | इस दौर में लोग प्राचीनतम छंद माऊ, डिडखुरयाऊ, पयाऊ, लापडिया, और खडी फागों को भूल गए |यह ईसुरी की फागों की ही खासियत थी की लोक जीवन से सीधी जुड़ गई |फाग मंडलियों की प्रतियोगी फाग गायन के आयोजन से इसको व्यापकता मिली | समय के साथ यह परम्परा समाप्त हो रही है |अब गांवों में साहित्य और लोक जीवन की फागों का स्थान अश्लील फागों ने और सी.डी.ने ले लिया है |
साहित्यकार प्रवीण गुप्त “अश्लील फाग गायन को श्रृंगार की ही उपाधि देते हें, वे कहते हें की यह भी जीवन का एक अंग है | और इसका कोई बुरा भी नहीं मानता है , वे कहते हैं कि अब गांवों की चौपालों पर फागों के फड नहीं जमते धोके से ही कुछ गाँवों में फागों के स्वर सुनाई देते हैं |जब की बुन्देलखंड की यह लोक परम्परा फाग गायन सबसे निराली है,यह ब्रज की होली से भी कहीं ज्यादा आकर्षक है | होली पर लोक गायन की जो परंपरा बुंदेलखंड में है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है | फिर भी इसे वह स्थान नहीं मिल पाया जो इसे मिलना चाहिए था | ईसुरी की फागों में लोक जीवन ही नहीं देखने को मिलता है बल्कि करारा व्यंग्य भी देखने को मिलता है |
लाठियों के साथ होली
बुंदेलखंड में लाठियां चलाते हुए होली खेली जाने की भी एक अनोखी परम्परा है | इस परंपरा में बच्चों से लेकर बूढ़े तक भाग लेते हैं | लट्ठमार होली में हाथों में लाठियां लेकर ढोलक की थाप के बीच एक दूसरे पर लाठियों से वार करते हैं.| पिचकारी की जगह लाठी डंडो के वार और संगीत की धुन पर थिरकते कदमों के साथ जांबाजी के अनोखे करतब का अनोखा संगम सिर्फ बुंदेलखंड की इस होली में ही देखने को मिलता है.
क्या बूढ़े और क्या जवान…सभी हिस्सा लेते हैं. बुंदेलखंड के लोग इस होली को अपनी प्राचीन बुंदेली संस्कृती से जोड़ते हैं. बुजुर्ग भगवती प्रसाद बताती हैं कि यहां परंपरा महाभारत काल से जुड़ी है, जब पांडव अज्ञातवास के दौरान विराट की नगरी में रुके थे, क्योकि उस समय पांडवो ने अपने अस्त्र और शस्त्र छिपाकर रख दिये थे. इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने पांडवो को लाठी युद्ध कला कौशल की शिक्षा दी थी. उस समय होली का त्यौहार था. इसी के बाद यहां यह परंपरा की शुरुआत हो गई, जो आज भी बुंदेलखंड के गांवों में दिखाई देती है.
होली पर पुरुषों का प्रवेश वर्जित ,
उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले में एक गाँव है कुंडौरा , इस गाँव में होली खेलने की महिलाओं की अनोखी परंपरा है। गाँव की महिलाएं राम जानकी मंदिर से होली पर टोलियों में निकलकर गलियों में हुड़दंग करती हैं।लगभग पांच सौं साल से चली आ रही इस परम्परा में जब महिलाएं होली खेल रही हों तब किसी भी पुरुष को आने की इजाजत नहीं होती है। पुरुष या तो गाँव के बाहर चले जाते हैं अथवा घर में ही बंद रहते हैं | अगर कोई बाहर आ गया तो उसकी जमकर मरम्मत हो जाती है या जुर्माना लग जाता है | होली खेलती महिलाओं की फोटो लेने भी प्रतिबंधित रहता है |
लट्ठ मार होली
बुंदेलखंड के कई गांवों में लट्ठ मार होली के साथ मटका फोड़ का खेल भी होता है | झांसी जिले के बबीना क्षेत्र में इसका चलन कुछ ज्यादा देखने को मिलता है | दरअसल यह एक पूर्णे परम्परा है जिसे लोग बरसाने की होली से जोड़कर मानते हैं | एक ऊँचे लकड़ी के खम्भे पर गुड़ मेवा से भरी मटकी बांदी जाती है ,| खम्बे पर आसानी से चढ़ ना पाएं इसलिए उसपर तेल लगा दिया जाता है | इस पर चढ़ने का जब पुरुष प्रयास करते हैं तो उन पर महिलायें लाठियों से प्रहार करती हैं | ये दुश्मनी की नहीं प्रेम की लाठी होती है जिसे खाने के बाद भी पुरुष नाराज नहीं होता |
नहीं जलाते होली और नहीं खेलते रंग गुलाल
सागर जिले के देवरी विधानसभा क्षेत्र का एक गाँव है हथखोय , आदिवासी बाहुल्य इस गाँव में होली से लेकर रंग पंचमी तक कोई त्यौहार नहीं मनाते | यहाँ के आदिवासी समुदाय का मानना है की अगर हमने होली का त्यौहार मनाया तो हमारी कुल देवी झारखंडन देवी नाराज हो जाएंगी | गाँव के मुखिया मानते हैं कि बहुत समय पहले एक बार किसी ने होली जलाई थी , उसके बाद पुरे गाँव में आग लग गई थी | माता के दरबार में प्रार्थना करने और अपनी गलती की छमा मांगने के बाद आग शांत हुई तभी से गाँव में होली नहीं मनाई जाती |
दरअसल देश दुनिया में होली का त्यौहार ही ऐसा है जिसकी विविधता, रंग, उत्साह और उमंग सहज ही लोगों को मोहित कर लेता है |