लोकतंत्र” के दीर्घ जीवन के लिए, राजनीतिक सहिष्णुता आवश्यक है

प्रस्तुति-रमेशचन्द्र चन्द्रे
मन्दसौर  २२ फरवरी ;अभी तक;  दुर्भाग्य से हमारे व्यवहारिक जीवन में आज  एक दूसरे के प्रति, राजनीतिक सहिष्णुता के दर्शन नहीं होते। प्रत्येक दल यह अनुभव करता है कि, इस कार्य क्षेत्र में आने वाले अन्य दलों में कुछ ऐसी जो भी बात हो उसे समूल नष्ट कर देना चाहिए। उनके प्रति किसी भी प्रकार की सहिष्णुता संभव नहीं है। इसलिए उन्हें अस्तित्व में ही नहीं आने देना चाहिए और यदि अस्तित्व में आने का प्रयास कर रहे हो तो उनकी वृद्धि नहीं होने देना चाहिए। अतः उनको उखाड़ फेंकने के समस्त उचित अथवा अनुचित उपाय पूर्ण रूप से ठीक माने जा रहे हैं।
                              उक्त स्थिति,  किसी भी देश के लोकतंत्र को दीर्घ एवं स्वस्थ जीवन प्रदान नहीं कर सकती।
“राष्ट्र के विकास” के लिए किए जाने वाले समस्त उपाय उचित ही हैं, इस पूर्णता का एहसास यदि कोई दल करता है, तो यह उसकी बहुत बड़ी भूल होती है, क्योंकि जिस प्रकार मनुष्य अपूर्ण है उसी प्रकार कोई भी विचारधारा पूर्ण नहीं हो सकती। इसलिए  यदि हम दूसरों की विचारधारा का पर्याप्त आदर नहीं कर सकते , अथवा विचार विनिमय के दरवाजे हमने बंद कर दिए तो समष्टिगत उन्नति संभव नहीं है।
                               यदि कोई दल सत्तारूढ़ है तो, यह आवश्यक नहीं है कि उसके समस्त निर्णय लोकतंत्र को दीर्घ-जीवन प्रदान करेंगे। इसलिए विपक्ष की विचारधारा, यदि शासकों की विचारधारा से आंशिक रूप से भी मेल खाती हो तो, उसे खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए तब ही लोकतंत्र दीर्घकाल तक जीवित रह सकता है।
जो देश यदि 1000 वर्ष की गुलामी से मुक्त हुआ हो और आजाद हुए उसे अभी 75 वर्ष ही हुए हो तो क्या? वह इतना सक्षम हो सकता है कि, बिना किसी विपक्ष के स्वतंत्र रूप से वह लोकतंत्र की रक्षा कर सकता है? इसलिए नवार्जीत स्वतंत्रता के इस काल में आज हमें यह अनुभव करना चाहिए कि, देश की आंतरिक और बाहरी समस्याओं को हल करने के लिए एक सुदृढ़ संयुक्त मोर्चे की अत्यधिक आवश्यकता है, इसलिए हमेशा सत्तारूढ दल को राजनीतिक स्वतंत्रता एवं सहिष्णुता को कायम रखने का निरंतर प्रयास करना चाहिए, तब ही लोकतंत्र दीर्घजीवी हो सकता है।